मृत्युदण्ड की प्रासंगिकता
मृत्युदण्ड की प्रासंगिकता मानव सभ्यता में मृत्युदण्ड का विधान प्राचीनकाल से चला आ रहा है। इतिहास गवाह है कि विश्व के प्राया देशों में विशेष अपराध सिद्ध होने पर प्राचीन शासकों द्वारा अपरधियों का वध करने की आज्ञा दी जाती थी कई शासक तो अपने विरोधियों एवं प्रतिद्विन्द्वियों से हमेशा के लिए छूटकारा पाने हेतु भी मृत्युदण्ड को अचूक हथियार की तरह प्रयोग करते थे। उस समय मृत्युदण्ड देने के अमानवीय व क्रूर तरीके भी प्रचलित थे, जैसे- दम घुटने तक धातुई कालर (गॅरेट) से गला दबाए रखना, धारदार ब्लेड वाली मशीन (गुलोटिन) से सर कलम करना, हाथी से कुचलना, सूली पर चढ़ाना, विषैली गैस में छोड़ना जहर का इंजेक्शन देना, गोली से उड़ाना इत्यादि । प्राचीन समय में वध करने हेतु पत्थर बरसाकर मारने, आग में जलाने, जमीन में जिन्दा दफन करने, छोटे-छोटे जख्म देकर कई दिनों में भरने जैसी क्रूरतम विधियाँ भी अपनाई जाती थीं। समय बितने के साथ-साथ मृत्युदण्ड के अमानवीय तरीकों का परित्याग किया जाने लगा। वर्तमान समय में कुछ देशों में तो मृत्युदण्ड पर रोक भी लगा दी गई है और पूरे विश्व में इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगा हुआ है। आज पूरी दुनिया में इस आदिम सजा के उचित और अनुचित होने रहस छिड़ी हुई है। 21वीं सदी में भारत जैसे विकासशील देश द्वारा इस दण्ड विधान को जारी रखना कितना उचित है? यह प्रश्न बहस का मुद्दा बना हुआ है। आज सम्पूर्ण मानव जगत मृत्युदण्ड दिए जाने के विषय पर दो वर्गों में बंटा हुआ है। एक वर्ग जघन्य अपराध करने वालों के वध को उचित ठहराता है, तो दूसरा अनुचित मृत्युदण्ड को अनुचित करार देने वाले लोग इसे अमानवीय एवं आदिम युगीन क्रूर सजा मानते हैं। मृत्युदण्ड के विरोधी पूरी न्याय प्रक्रिया की निष्पक्षता पर ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इनका कहना है कि कई बार साक्ष्य व पैसों के अभाव में निर्दोष व्यक्ति भी स्वयं को निदोष साबित नहीं कर पाते और उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया जाता है। फ्रांसीसी लेखक अल्वेयर कामू के शब्दों में- "मृत्युदण्ड एक सोची-समझी हत्या है, जिसकी तुलना किसी भी सुविचारित अपराध से नहीं की जा सकती। " मृत्युदण्ड को गलत ठहराने वाले यह भी तर्क देते हैं कि किसी की जीवनशैली समाप्त कर भला उसे सजा किस प्रकार दी जा सकती है, क्योंकि सजा भुगतने और उसे महसूस करने हेतु व्यक्ति का जिंदा रहना आवश्यक है और यदि मृत्युदण्ड देने का उद्देश्य सिर्फ दूसरों को अपराध न करने की नसीहत देना है, तो यह सजा वास्तव में सजा न होकर एक प्रतिशोध मात्र है। प्राया यह में देखा जाता है कि मृत्युदण्ड दिए जाने वाले राष्ट्रों में दिनोंदिन अपराधों की संख्या बढ़ती ही जाती है। मृत्युदण्ड देने के विरूद्ध यह भी तर्क दिया जाता है कि सजा देने का उद्देश्य व्यक्ति की आपराधिक प्रवृत्ति को सुधारना होता है, जबकि मृत्युदण्ड में इसकी कोई सम्भावना ही नहीं छोड़ी जाती है। इन्ही सब बातों को महत्व देते हुए आज विश्व के 140 से अधिक राष्ट्रों में मृत्युदण्ड को समाप्त कर दिया गया है। मृत्युदण्ड के समर्थकों का मानना है कि जघन्य अपराध करने पर दोषियों को अवश्य ही मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए, क्योंकि इससे एक ओर तो अपराधियों को पुनः अपराध करने का मौका नहीं मिलेगा, तो दूसरी ओर समाज के अन्य लोग भी अपराधकरने से डरेंगे। इनका यह भी कहना है कि बहुस्तरीय न्याय प्रक्रिया से गुजरने के पश्चात् मृत्युदण्ड जैसी सजा में गलत फैसला होने की सम्भावना ही नहीं बचती। मृत्युदण्ड के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि जघन्य अपराध करने वालों को लम्बी अवधि तक बन्दीगृह में रखा जाने के दौरान उन पर काफी अधिक राशि खर्च होती है, जबकि मृत्युदण्ड एक सस्ता दण्ड विधान है। इटली के प्रसिद्ध आपराधशास्त्री गेरोफेलो के शब्दों में-' 'मृत्युदण्ड को प्रतिबन्धित करने का तात्पर्य है-हत्यारे से यह कहना कि उसके द्वारा हत्या करने पर उसे बस घर के बदले बन्दीगृह में निवास करने का जोखिम उठाना पड़ेगा।" एमनेस्टी द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2013 के दौरान विश्व के 22 देशों में मृत्युदण्ड दिए जाने के कुल 778 मामले दर्ज किए गए, जबकि वर्ष 2012 में 21 देशों द्वारा कुल 682 लोगों को मौत की सजा दी गई थी। वर्ष 2015 में 28 देशों में 52 लोगों क तथा वर्ष 2016 में 28 देशों में 60 लोगों को मृत्युदण्ड की सजा दी गई इस ऑकड़े में मृत्युदण्ड दिए जाने की सूचना सार्वजनिक न करने वाले देश चीन को सम्मिलित नहीं किया गया है, जहाँ प्रतिवर्ष एक हजार से अधिक लोगों को मृत्युदण्ड दिया जाता है। चीन के बाद सार्वाधिक मृत्युदण्ड दिए जाने वाले तीन देश हैं ईरान, इराक और सऊदी अरब चीन, ईरान, इराक, सऊदी अरब, बांग्लादेश, उत्तर कोरिया, सूडान, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यमन भी ऐसे देश हैं जहाँ पिछले पांच वर्षों से लगातार मृत्युदण्ड दिया जा रहा है। यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में 'चार्टर ऑफ फण्डामेण्टल राइट्स ऑफ द यूरोपियन यूनियन' की धारा 2 के अनुसार, मृत्युदण्ड निषिद्ध है। वर्ष 2013 में संयुक्त राष्ट्र संघ के 173 सदस्य देशों द्वारा मृत्युदण्ड को समाप्त करने हेतु एक गैर अनिवार्य प्रस्ताव पर मतदान किया गया था। उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि धीरे-धीरे विश्व मृत्युदण्ड उन्मूलन की ओर अग्रसर हो रहा है। भारत में मृत्युदण्ड की प्रासंगिकता पर शुरू से ही प्रश्नचिह्न लगा हुआ है। कई बार इसके उन्मूलन की कोशिश भी की गई। स्वतनत्रता प्राप्ति के पश्चात् मृत्युदण्ड समाप्त करने हेतु लोकसभा में पहली बार वर्ष 1949 में प्रस्ताव रखा गया था, पर तब तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार पटेल ने उसे अस्वीकार कर दिया था। वर्ष 1955 में मृत्युदण्ड से सम्बद्ध पहले से चले आ रहे नियम को संशोधित कर मृत्युदण्ड की सजा सुनाने के दौरान इसके कारणों को स्पष्ट करना आवश्यक बना दिया गया, जबकि इससे पूर्व सिर्फ आजीवन कारावास ऐसा विधान था। वर्ष 1971 में विधि आयोग ने मृत्युदण्ड को सर्वथा उचित ठहराते हुए कहा कि यह प्रतिशोध की भावना पर आधारित दण्ड विधान नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य क्रूरतम अपराधियों के प्रति सामाजिक रोष प्रकट करना है। वर्ष 1980 में बचनसिंह मामले की सुनवाई करने के दौरान संवैधानिक पीठ ने फैसला सुनाया कि मृत्युदण्ड से संविधान के अनुच्छेद-14 एवं 21 का उल्लंघन नहीं होता, पर न्यायाधीशों को इसे अन्तिम हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहिए। भारत में कुछ विशेष अपराधों के लिए ही मृत्युदण्ड का प्रावधान किया गया है। भारत सरकार के विरूद्ध युद्ध करने राजद्रोह को उकसाने या उसमें शामिल होने, हत्या डकैती करने, डकैती सहित हत्या करने, किसी नाबालिग, मानसिक रूप से असन्तुलित अथवा नशे से ग्रस्त व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाने, उम्रकैद भुगत रहे अपराधी द्वारा हत्या की कोशिश एवं ऐसी झूठी गवाही व सबूत देने, जिससे किसी निर्दोष को फाँसी हो जाए, विशेष परिस्थितियों में ही यहाँ अधिकतम सजा के रूप में मृत्युदण्ड का विधान निर्धारित किया गया है। मृत्युदण्ड से सम्बद्ध विभिन्न धाराओं में किसी नाबालिग, मानसिक रूप से असन्तुलित व नशे से ग्रस्त व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाने से सम्बन्धित धारा-303 एकमात्र ऐसी धारा थी, जिसमें सिर्फ मृत्युदण्ड का ही प्रावधान रखा गया था, पर वर्ष वर्ष 1983 में इस धारा को असंवैधानिक करार दिया गया।