समाज के नवनिर्माण में साहित्य की भूमिका
समाज के नवनिर्माण में साहित्य की भूमिका साहित्य और समाज 2. साहित्य वह सशक्त माध्यम है, जो समाज को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। यह समाज में प्रबोधन की प्रक्रिया का सूत्रपात करता है। लोगों को उद्वेलित करता है। सत्य के सुखद परिणामों को रेखांकित करता है, तो असत्य के दुखद अंतों को स्पष्ट कर हमें सीख व शिक्षा प्रदान करता है। अच्छा साहित्य हमारे चरित्र निर्माण में सहायक होता है। इसकी उपादेयता व्यापक है। यही कारण है कि समाज के नवनिर्माण में साहित्य की केंद्रीय भूमिका होती है। यह समाज को दिशा बोध कराने वाला, उसे नवनिर्मित करने वाला सशक्त माध्यम है। साहित्य, समाज को संस्कारित करता है, जीवन मूल्य देता है एवं कालखंड की विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं विरोधाभासों को रेखांकित कर समाज को संदेश देता है, जिससे समाज में सुधार आता है और सामाजिक विकास को लय मिलती है। साहित्य समाज को संजीविनी शक्ति प्रदान करके उसकी प्रशस्ति का मार्ग निर्धारित करता. है। वर्तमान साहित्य में तो साहित्य पर विभिन्न फिल्में व वेब सीरीज का निर्माण होने लगा है जो कि लोगों के जनमानस पर सीधा असर डाल रही हैं। हाल ही आई 'लीला' वेब सीरीज भविष्य में धार्मिक प्रोत्साहन के कारण एक सामाजिक विसंगति पैदा होने पर अपनी पैनी नजर डालती नजर आई और कहीं न कहीं हमें सचेत भी करती है। यह वेब सीरीज प्रयाग अकबर द्वारा लिखे गये उपन्यास पर आधारित है। इसी प्रकार संजय बारू की पुस्तक द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर हमें इतिहास में झाँकने का मौका देती है। साहित्य की तीन खूबियाँ इसकी महत्ता को बढ़ाती हैं। मसलन, साहित्य अतीत से प्रेरणा ग्रहण करता है, वर्तमान को चित्रित करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है। साहित्य में सामाजिक यथार्थ, मानवीय प्रतिभा और कल्पनाजन्य आदर्श का समन्वयन रहता है। वस्तुतः साहित्य जीवनसत्य को प्रकट करने वाले शिवत्वमयी विचारों और भावों की घनीभूत अभिव्यक्ति है। साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्य में समाज की विशेषताओं और विकृतियों का चित्रण होता है। दर्पण हमारी बाह्य विकृतियों का परिचय देता है जबकि साहित्य हमारी आंतरिक विकृतियों को चिन्हित करता है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि साहित्यकार समाज में व्याप्त विकृतियों के निवारण हेतु अपेक्षित परिवर्तनों को भी व्यंजना प्रदान करता है। यहीं से समाज के नवनिर्माण में साहित्य का अवदान सुनिशित होता है। साहित्य जीवन के सभी घटकों का श्रृंखला समुच्चय है। इसका एक-एक प्रमाण हीरक हार की मणिमुक्ताओं की भाँति संयोजित है। जीवन की समस्त विविधता को समग्रता से व्यंजित करने की क्षमता साहित्य में ही पायी जाती है। समाज के नवनिर्माण में साहित्य की भूमिका का विश्लेषण करने से पूर्व साहित्य के स्वरूप और उसके समाज दर्पण का लक्ष्य समझना आवश्यक है। संस्कृत का प्रसिद्ध सूत्र वाक्य है हितेन सह इति सष्टिमूह तस्याभावः साहित्यम् । अर्थात् साहित्य का मूल तत्व सबका हितसाधन है। मानव स्वभाव से एक क्रियाशील प्राणी है तथा मन में उठने वाले भावों का चित्रण उसकी अनिवार्य आवश्यकता है। यही भाव जब लेखनीबद्ध होकर भाषा के माध्यम से प्रकट होते हैं, वहीं सामग्री यानी ज्ञानवर्धक अभिव्यक्ति साहित्य कहलाता है। साहित्य का समाजदर्शन मानवीय विद्रूप परंपराओं और व्यवस्था के शोषण रूप का समर्थन करने वाले धार्मिक नैतिक मूल्यों के बहिष्कार से अनुप्राणित है। जीवन और साहित्य की प्रेरणाएँ समान होती है। साहित्य मानव जीवन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण के ताने-बाने से निर्मित होता है। उसमें मानवीय आत्मा की तरंगे प्रतिबिम्बित होती हैं। अस्तु समाज और साहित्य में अन्योन्याश्रित संबंध है, दोनों जीवन संबंधी सिक्के के दो पहलू हैं। साहित्य समाज को नवनिर्माण के विभिन्न चरणों से परिचित कराता है। समाज के नवनिर्माण का पहला बिंदु है, सभी स्थितियों को ऐतिहासिक संदर्भों में रखकर निष्पक्ष ढंग से मूल्यांकित करना। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि साहित्य समाज का दर्पण है। एक ओर जहाँ समाज के शुभ संस्कार साहित्य में लिपिबद्ध होते हैं, वही अशुभ संस्कार भी साहित्य में समान रूप से समावृत होते हैं। साहित्य की यही पारदर्शिता समाज के नवनिर्माण में हमारी सहायक बनती है। साहित्य हमारी खामियों को उजागर ही नहीं करता, बल्कि सुधार के लिए प्रेरित भी करता है और समाधान भी सुझाता है। यह हमें उच्च कोटि के संस्कार भी प्रदान करता है, जिनका समाज निर्माण में विशेष महत्त्व होता है। समाज के नवनिर्माण में अब सामने आती है, युगबोध की सटीक अभिव्यक्ति युगबोध की अभिव्यक्ति कई रूपों में की जा सकती है। मसलन- समाज का यथार्थवादी चित्रण, समाज सुधार का चित्रण तथा समाज के प्रसंगों की जीवंत अभिव्यक्ति। इस प्रकार हम देखते हैं कि साहित्य समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। अमीर खुसरो से लेकर तुलसी, कबीर, जायसी, रहीम, प्रेमचंद भारतेन्दु, निराला, नागार्जुन तक की श्रृंखला के रचनाकारों ने समाज के लिजलिजे पावों की शल्यचिकित्सा की शासकीय मान्यताओं के खिलाफ जाकर जोखिम लिया, जबकि वे भलीभाँति जानते थे कि इसमें उन्हें व्यक्तिगत रूप से हानि और प्रतिकार के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। तथापि समाज के निर्माण के लिए उन्होंने यह जोखिम सहर्ष उठाया और अमर हो गये। को प्रस्तुत रचना तथा मूल्यों का द्वंद्वात्मक रिश्ता होता है तथा इस द्वंद्व के माध्यम से रचना यथार्थ करती है। यथार्थ मानव मूल्यों के निर्माण में सहायक होता है। जिस मूल्य को रचनाकार गढ़ता है, जब समाज में यह टूटता है, तब रचनाकार विद्रोह कर बैठता है। क्रांतिकारी लेखकों की पूरी जमात इसे सिद्ध करती है। लेखक समाज के त्रस्त लोगों से इतना निकट हो जाताहैं कि उनके कष्टों से एकाकार हो जाता है। तुलसी, कबीर आज भी इसलिए प्रासंगिक हैं कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभव का समाजीकरण किया, एक अविकसित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में। यहाँ मुंशी प्रेमचंद का कथन उद्धत करने योग्य है " जो दलित है, पीड़ित है, संत्रस्त है, उसकी साहित्य के माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व है। " मजे की बात तो यह है कि समाज के भटकाव का भी चित्रण साहित्य में समान रूप में होता है। समाज के वर्गों के टकराव को लेकर कई बार गंभीर स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। कारण समाज के वर्गों के मूल्य अलग-अलग होते हैं। एक निष्पक्ष रचनाकार इन मूल्यों में सदैव न्याय का पक्ष लेता है। उसकी रचना अन्याय, रूढ़िता तथा अमानवीयता को हमेशा अवरुद्ध करती रहती है। वास्तविकता तो यह है कि न्याय की तरह ही सच्चा साहित्य भी आत्मा से प्रसूत होता है। प्रेमचंद के किसान मजदूर उस पीड़ा व संवदेना का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे होकर आज भी अविकसित एवं शोषित वर्ग गुजर रहा है। साहित्य शब्दों को बरतने की भी कला है। शब्द-शब्द संघर्ष का नाम ही साहित्य है। यह संघर्ष किसके लिए है? समाज के लिए ही तो है। साहित्य शब्दों के जरिए न सिर्फ समाज के निर्माण में आगे रहता है, बल्कि समाज के लिए संघर्ष कर सामाजिक मूल्यों की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। ये शब्द अत्यंत शक्तिशाली होते हैं और असाधारण प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इन्हें अकारण 'ब्रह्मा' नहीं कहा गया है। साहित्य में समाज की विविधता, जीवन दृष्टि और लोककलापों का संरक्षण होता है। वानस्पतिक वस्तुओं से लेकर मनुष्यों के प्राणवान रिश्तों के विभिन्न आयाम साहित्य की ही थाती है। साहित्य समाज को स्वस्थ कलात्मक ज्ञानवर्धक मनोरंजन प्रदान करता है जिससे सामाजिक संस्कारों का परिष्कार होता है। विभिन्न साहित्यिक विधाएँ सामाजिक गतिविधियों की व्यापक और बहुमुखी अभिव्यक्ति देती हैं। 'प्रसाद का आनन्दवाद' साहित्य की चिरंतन समस्या का समाधान घोषित करता समरस थे सब जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था। चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था। साहित्यकार समाज को पद्य और गद्य की विभिन्न विधाओं में नए-नए मनोरंजक और ज्ञानवर्धक उपकरण देता है। ये उपकरण हृदय को उथली तुष्टि देने के बजाए, मानसिक जिज्ञासा देते हैं। इस प्रकार वर्तमान के स्तंभों पर स्वस्थ भविष्य का भवन तैयार होता है। इसके अतिरिक्त साहित्य से ज्ञान का प्रसार होता है। रचनागत सौन्दर्य और तथ्यात्मक विस्तार मनुष्य के विचार हित का साधन होते हैं। रचनाएँ समाज की धार्मिक भावना, भक्ति, पद्धति समाजसेवा के माध्यम से मूल्यों के संदर्भ में मनुष्यहित की सर्वोच्चता का अनुसंधान करती हैं। यही दृष्टिकोण साहित्य को मनुष्य जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध करते हैं। साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह कितनी सूक्ष्मता और मानवीय संवेदना के साथ सामाजिक अवयवों को उद्घाटित करता है। रचना की क्रियाशीलता प्राथमिक दर्जे से लेकर उच्च तथा विस्तृत फलक तक निष्पन्न होती हैं। रचना की सामाजिकता और रचना प्रक्रिया के संदर्भ में मूल्यों का अध्ययन उसे सार्थकता प्रदान करता है। साहित्य मूल्यों के द्वारा टूटते-बिखरते समाज को सहेजता है। यह हमें मानवीय संवेदनाएँ प्रदान करता है, तो सौन्दर्य-बोध भी करवाता है। यह हमें सकारात्मक एवं आशावादी संस्पर्श देकर हमें अवसाद से उबारता है, कई बार इस हद तक उद्वेलित करता है कि व्यक्ति में रचनात्मक परिवर्तन देखने को मिलते हैं। उसकी जीवन धारा ही बदल जाती है और वह समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साहित्य हमारी अनुभूतियों को जगाकर हमें चेतना प्रदान करता है और इस प्रकार जड़ता से उबारता है। सच कहा जाए तो साहित्य, समाज के लिए एक अमृत रूपी तत्त्व है। यह समाज के विकारों को दूर कर उसे निर्मलता प्रदान करता है। साहित्यकार साहित्य को साधना की तरह से बरतता है। यही कारण है कि वह समाज की अन्य कल्याणकारी संस्थाओं की तुलना में अत्यंत लाभ पर सार्वजनिक हितों का संवर्धन करता है। साहित्यकार की यात्रा शब्द शब्द संघर्ष की यात्रा होती है। उसके शब्द विशेष प्रभाव की उत्पत्ति करते हैं, मूल्यों का सृजन करते हैं, सत्य को रेखांकित करते हैं, असत्य का प्रतिकार करते हैं। शब्दों की यह सारगर्भित यात्रा वह समाज के लिए ही तो तय करता है। इस प्रकार वह समाज के नवनिर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाता है। साहित्य संस्कृति का संरक्षक है, भविष्य का पथ प्रदर्शक है। संस्कृति द्वारा संकलित होकर ही साहित्य 'लोकमंगल' की भावना से समन्वित होता है। लोकमंगल की साहित्यिक चेतना पंत के शब्दों में देखिए वही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप हृदय में प्रणय अपार लोचनों में लावण्य अनूप लोक सेवा में शिव अविकार । हाल के दिनों में संचार साधनों के प्रसार और सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्यिक अभिवृत्तियों समाज के नवनिर्माण में अपना योगदान अधिक सफलता से दे रही हैं। यद्यपि बाजारवादी प्रवृत्तियों के प्रभावस्वरूप साहित्यिक मूल्यों में गिरावट आयी है, लेकिन स्थितियाँ अभी भी नियंत्रण में हैं। समाज के सभी वर्गों को समझना होगा कि साहित्य समाज के मूल्यों का निर्धारक है। हमें उसके मूल तत्वों को संरक्षित करना होगा। यथार्थ भाव एवं यथार्थवाद से अभिप्रेरित साहित्य आर्दशवाद के प्रतिमान स्थापित करता है। यथार्थ के धरातल से जुड़े यही आदर्श समाज के नवनिर्माण में नींव का पत्थर बनते हैं और हम एक सुसंस्कृत, विकसित, संतुलित व परिष्कृत समाज की संरचना को संभव बना पाते हैं।