साहित्य समाज का प्रतिविम्ब है न कि दर्पण
साहित्य समाज का प्रतिविम्ब है न कि दर्पण साहित्य समाज का दर्पण होता है, यह एक प्रसिद्ध उक्ति है। परंतु वही साहित्यकार सफल समझा जाता है, जो अपनी रचना में तत्कालीन समाज का वास्तविक प्रतिविम्ब उतार पाता है। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि साहित्य समाज का दर्पण होता है क्योंकि दर्पण पूर्ण सत्य नहीं होता। प्रथम तो दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब हमेशा विम्ब का आधा होता है। प्रथम तो दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब हमेशा बिम्ब का आधा होता है। दूसरा, दर्पण का क्या स्वरूप है? समतल अवतल या उत्तल इसका प्रभाव भी साहित्य पर पड़ता है। यह संबंधित साहित्यकार पर निर्भर है कि वह क्या रूप चुनता है? यदि हम दर्पण को बिना समझे प्रतिबिम्ब को देखेंगे तो हमें कभी सही जानकारी नहीं मिलेगी साहित्यकार क्या दर्पण चुनता है यह इस पर निर्भर है कि उसकी प्रतिबद्धता क्या है? उसके साहित्य का पाठक और श्रोता कौन है? साहित्य लोगों के विकास के लिए नियोजित है। साहित्य मात्र मनोरंजन या मन बहलाव हेतु नहीं है अपितु इसका उद्देश्य व्यापक है। साहित्य में नायक-नायिका के संयोग-वियोग के प्रसंगों के अतिरिक्त जीवन की समस्याओं पर विचार करने और उन्हें हल करने की क्षमता है। साहित्य अपने काल का प्रतिबिम्ब होता है। जो भाव और विचार लोगों के हृदयों को स्पंदित करते हैं, वहीं साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं। साहित्य में प्रभाव तभी उत्पन्न हो सकता है जब वह जीवन की सच्चाइयों का दर्पण हो लेकिन साहित्य के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं कि वह महज दर्पण हो मात्र दर्पण होना लोगों का विकास सुनिश्चित नहीं करता साहित्य गुण दोष का विश्लेषण करने वाला आलोचक ही नहीं विधायक कलाकार है। अतः साहित्य समाज के प्रतिविम्ब के रूप में अधिक स्पष्ट है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। यह ज्ञान जीवन से सीधा जुड़ा है। अतः साहित्य का आधार जीवन है। साहित्य तभी शाश्वत रूप धारण कर सकता है जब साहित्यकार समाज की उपेक्षा एवं कल्पनाशील साहित्य की रचना से परहेज करे। प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ के समाज के ऊपर ही आश्रित है। यदि ऐसा है, तो यह कहना कदापि उचित नहीं कि साहित्य समाज का दर्पण है क्योंकि दर्पण तो एक साधन मात्र है परंतु साहित्य का साध्य तो जीवन है, वह प्रतिबिम्ब है, वह सच्चाई है जिसका प्रतिबिम्ब हमें उस दर्पण में दिख रहा है। यह प्रतिबिम्ब सच का द्योतक है जिसे दर्पण में देख समाज की वास्तविकता को देखा जा सकता है। प्राचीन समाज में धर्म का प्रभाव साहित्य पर स्पष्ट परिलक्षित होता था। मनुष्य भय और प्रलोभन से कार्य लेता था भय, प्रलोभन, पाप-पुण्य उसके साधन थे। वर्तमान में साहित्य न सौंदर्य प्रेम रूपी साधन के माध्यम से लोगों को प्रभावित किया है। साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है सच्चा साहित्य वही है जिसकी भाषा प्रौड़, परिमार्जित और सुंदर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने की क्षमता हो। यह गुण उसी अवस्था में प्रकट हो सकता है जब उसमें जीवन की सच्चाइयों और अनुभूतियों व्यक्त की गई हो। यदि प्रतिबिम्ब, दर्पण और सच्चाई की तुलना की जाए तो प्रतिविम्ब और सच्चाई में दर्पण और सच्चाई की अपेक्षा अधिक साम्य नजर आएगा दर्पण सच्चा है या झूठा कहना मुश्किल है परंतु प्रतिविम्ब तो व्यक्ति को स्वयं एवं सच का ही रूप है। साहित्य समाज का प्रतिबिंब हैं परंतु कुछ साहित्य प्रेमी साहित्य में निष्क्रिय सौंदर्य के अतिरिक्त किसी अन्य चित्रण के पक्ष में नहीं है। डॉ. राम विलास शर्मा कहते हैं ऐसे साहित्य प्रेमी जो मात्र अपना ही प्रतिबिम्ब देखना चाहते हैं उन्हें साहित्य की परिभाषा में परिवर्तन कर देना चाहिए।" ऐसे व्यक्तियों के अनुसार साहित्य वह दर्पण होना चाहिए जिसमें इन विशेष लोगों का ही प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। ऐसा कृत्रिम साहित्य समाज को कुछ समय तो पसंद आ सकता है परंतु वास्तविकता6 तो अंततः लोगों तक पहुँच ही जाती है। इस वास्तविक भाव और रसिकगणों द्वारा उत्पन्न छ भाव के मध्य अंतर को स्पष्ट करने का कार्य प्रतिविम्व करता है। जब आलोचनाओं एवं सच्ची व्याख्याओं का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, तो कृत्रिम साहित्य को समाज दरकिनार कर देता है। साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौंदर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। कलाकार मन में ऐसे भावों का सृजन करता है, जो दृढ़ता और जीवन में सकारात्मक संदेश देते हैं। साहित्य उस चिकित्सक के समान है जो हमारी कमजोरियों, मानसिक और नैतिक गिरावट का इलाज करता है। मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य है। जमाने के छल, प्रपंच और परिस्थितियों के कारण वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इसी देवत्व को प्रतिष्ठित करने का कार्य करता है। कहने का तात्पर्य है कि साहित्य समाज में प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक वर्ग को केंद्र में रखकर रथे जाते हैं। स्पष्ट एवं सच्चाई को समाहित किए गए साहित्य ही जीवन का आधार हैं प्रतिबिम्ब में भी व्यक्ति स्वयं से परिचित होता है और कल देखे गए प्रतिविम्ब से आज के बने प्रतिविम्ब की तुलना कर देवत्व को पाने का प्रयास करता है। साहित्य समाज के वर्तमान रूप का प्रतिबिम्ब, अतीत का दर्पण और भावी जीवन का निर्देशन करने वाला होता है। समाज को राह दिखाने वाले दीपक का कार्य साहित्य करता है। वास्तविक साहित्य कभी पुराना नहीं होता इसलिए तो कालिदास, तुलसी, वाल्मीकि आदि की साहित्यिक कृतियाँ आज भी हमें दिशा दे रही हैं और भविष्य में भी देती रहेंगी। समाज का प्रभाव साहित्य पर जरूर पड़ता है। अतः साहित्यकार को ऐसे साहित्य की रचना करनी चाहिए जो जीवन को ऊंचा उठाए।