सच्चा साहित्य राष्ट्रीय संस्कृति का पोषक होता है
सच्चा साहित्य राष्ट्रीय संस्कृति का पोषक होता है साहित्य यदि वास्वत में साहित्य है, अर्थात् सकारात्मक अनुरंजन है, तो वह 'सच्चा' ही होगा। पर यह विशेषण कदाचित इसलिए आवश्यक हो गया है कि साहित्य में भी गैर-साहित्यिक प्रभाव बढ़ते जा रहे हैं। बहरहाल हम यहाँ सकारात्मक साहित्य की ही चर्चा करेंगे। भारत विभिन्नताओं का देश है, इस महान देश की विविधता जीवन के हर पहलू में दृष्टिगत होती है, वस्तुतः भारत की संस्कृति विविधताओं और अनेकता के विभिन्न बिंदुओं का समुच्चय प्रतीत होती है। आहिर है यह विविधता भाषा, साहित्य, लिपि के प्रचलन स्तर पर भी व्याप्त है। पंजाबी, असमी, बंगाली, बिहारी, डोंगरी, कश्मीरी, सिन्धी, कोंकणी, भोजपुरी, तुरू, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, तमिल, मणिपुरी के अतिरिक्त सैकड़ों बोलियाँ और लुप्तप्राय भाषाएँ विद्यमान हैं, जिनका साहित्यिक और भाषा वैज्ञानिक महत्त्व समान है। अनेक भाषाओं का अपना साहित्य है जो विविध गुणवत्ता, परिमाण और प्राचीनता की कसौटी पर अत्यंत समृद्ध हैं। हम देखते हैं कि बाहरी तौर पर दृष्टिगत विभिन्नता हमें अनुभूति और विचारों के धरातल पर संयुक्त कर देती है। समूचे साहित्यिक भंडार में सौहार्द और सद्भाव की धारा को हमारे संतों, सूक्तियों, कवियों, समाज सुधारकों तथा गुरुओं ने अपनी वाणी में समेटकर अभिव्यक्ति दी जिसके परिणामस्वरूप भारतीय साहित्य वास्तविक रूप में राष्ट्रीय संस्कृति के पोषक के रूप में परिणत हो पाया। भारत में साहित्य ने राष्ट्रीय संस्कृति के संक्षेपण और संरक्षण का कार्य अपने आरंभ से ही प्रारंभ कर दिया था। राजनैतिक अस्थिरता और विदेशी शासन की दासता की ग्लानि कम करने के लिए भक्तिकालीन लोक जागरण की प्रवृत्ति स्वतः विख्यात है। समाज के पराभव की बढ़ती गति कोरोकने का कार्य भक्ति कवियों द्वारा ही किया गया था। 10वीं- 11वीं शताब्दी में नाथमुनि ने वैष्णव भक्ति को नवीन रूप प्रदान किया। उनके उत्तराधिकारी रामानुजाचार्य ने शास्त्रीय पद्धति पर भक्ति का निरूपण किया। 13वीं शताब्दी में गुजरात के मध्वाचार्य ने अपने द्वैतवादी संप्रदाय की स्थापना की और सगुण भक्ति का प्रचार किया। इसी समय महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भक्त कवि नामदेव ने हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए सामान्य भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। यहाँ हम हिन्दी साहित्य के विशेष संदर्भ में, विषय पर विचार करेंगे। कबीर आदि संत कवियों ने बाह्य आडंबरों का विरोध करके सुधारात्मक वातावरण सृजित किया और दो विपरीत धर्मी समुदायों को निकट लाने का प्रयास किया। इसी परम्परा में भक्तिकालीन कवियों की वैचारिक प्रविधि विकसित हुई। सूफी संतों ने हिन्दू प्रेममार्गी कथाओं द्वारा धार्मिक सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय संस्कृति और मनीषा ने सदैव अखिल वैश्विक कल्याण की विचारधारा प्रतिपादित की। भारतीय मनीषा ने प्रायः कट्टर राष्ट्रीयता को महत्व प्रदान नहीं किया। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरप्रायः' की भावना भारतीय साहित्यिक चिन्तर धारा का अजस्र स्रोत रही है। भारतीय ऋषियों, संतों, कवियों के काव्य व साहित्य में भावात्मक एकता एक सहज स्वाभाविक वृत्ति रही है। देश के चारों कोनों पर चार धामों की स्थापना, सप्तपुरी व सप्त नदियों के नामों का मंत्र रूप में उच्चारण, पंच, देवोपासना, समस्त धर्मावलम्बियों को भी धर्म-पालन की स्वतंत्रता, समस्त दार्शनिक सिद्धांतों की समन्वयशीलता आदि भावात्मक एकता के ही बाह्य विधान हैं। हिन्दी के संत एवं भक्तिकालीन कवियों ने इस दिशा में विशेष योगदान दिया है, इन कवियों ने समाज की विघटनकारी परम्पराओं के विभेदीकरण की व्यवस्थाओं की सदैव आलोचना की। हिन्दी साहित्य के महान कवियों ने विभिन्न विचारधाराओं एवं रीतियों के मध्य समन्वय स्थापित करने के गंभीर प्रयास किए। तुलसी का काव्य तो समन्वय की साधना ही है। संतों की कतिपय वाणियों में वेदशास्त्र का विरोध दिखाई पड़ता है, जो वस्तुतः वेद या संबद्ध शास्त्र का विरोध न होकर उन लोगों के प्रति अश्रद्धा है जो कि अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए उनके नाम पर जनता को गुमराह कर रहे थे, देखिए, - वेद कतेब कहौ मत झूठा। झूठा सोई जो न आप विचार। साहित्य में समस्त भेदभाव और विभाजक रेखाओं को अस्वाभाविक, कृत्रिम और त्याज्य घोषित किया गया है। साहित्यकारों ने सामाजिक ऐक्य की आधारशिला रखी और भक्तिकालीन कवियों ने मजबूत नींव तैयार की। इन्होंने निम्न वर्गों को जगाने का कार्य किया, उनमें आत्म-सम्मान जगाने का कार्य भक्तिकालीन कवियों ने कोल, किरात, भील, अनत्यज, शूद्र आदि का मोक्ष विधान द्वारा किया। के मध्यकाल में राजस्थान के अनेक कवियों ने राष्ट्रीय जातीयता के गौरव गान गाये। चित्तौड़ राणा प्रताप को आलम्बन बनाकर सूरजमल, पृथ्वीराज आदि ने मार्मिक रचनाएँ प्रस्तुत की। राणा प्रताप के बाद राष्ट्रीयता के संरक्षक बने शिवाजी और छत्रसाल को आलम्बन बनाकर कवि भूषण ने ओजस्वी काव्य की रचना की। भूषण ने जिस प्रकार शिवाजी के गुणों को प्रशंसित किया। वह किसी व्यक्तिगत संबंध या आश्रयदाता के आधार पर नहीं है बल्कि राष्ट्रीयता के संरक्षक और स्थानीय संस्कृति के रक्षक के रूप में है। मध्यकाल में ही साहित्य में वैश्विक मानववाद की अभिव्यक्ति स्पष्ट होने लगी थी। इनकी सामाजिक चेतना मानववाद के व्यापक और उदात्त सिद्धांतों द्वारा अनुप्राणित थी। इन कवियों की। वाणी मानव को मानव से जोड़ने वाली थी। गांधीवाद उसी व्यापक सामाजिक चेतना का आधुनिक संस्करण है। अहिंसामूलक धर्म भावना की उद्भावना हमें साहित्य में ही दृष्टिगत होती हैं। सभी कवि ने एक स्वर से 'शोषण और दरिद्रता'। तुलसीदास ने स्पष्ट शब्दों में लिखा परहित सरिस धर्म नहि भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥ महिलाओं की दुर्दशा और विवशता पर भी गोस्वामी जी की टिप्पणी पूरी तरह सही है, जिसे हम आज भी महसूस करते हैं केहि विधि सृजी नारि जग माही पराधीन सपनेहूं सुख नाही ॥ रामराज्य के रूप में लोक कल्याणकारी राज्य की संकल्पना भी सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रस्तुत की थी दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज काहुहिं नहिं व्यापा॥ उनके रामराज्य में मानव का चरम विकास निहित है, जिसे हम 'तंत्रविहीन समाज' भी आधुनिक काल में राष्ट्रीयता की दिशा बदल गयी और यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रस्फुटित हुई। ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के साथ ही आधुनिक राजनीतिक तत्त्वों का आगमन हुआ, जिनकी भरपूर अभिव्यक्ति समकालीन साहित्यिक कृतियों में हुई। 1857 ई. के महाविद्रोह के बाद से ही राष्ट्रीय चेतना के दर्शन होने लगते हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह 'दिनकर' माखन लाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, सेठ गोविन्द दास, हरिकृष्ण प्रेमी, सद्गुरु शरण अवस्थी, प्रेमचंद, जैनेन्द्र, विष्णु प्रभाकर आदि ने साहित्य की प्रत्येक विधा के माध्यम से राष्ट्रीय संस्कृति को संपोषित किया। गांधी युग तथा द्विवेदी युग के अंतिम चरण में छायावादी का युग आ गया था। निराला ने "जागो फिर एक बार" जैसी राष्ट्रीयता की भावना से युक्त कविताओं द्वारा जनमानस को झकझोर दिया। पंत की रचनाओं (प्राम्या व युगवाणी) में भारतीय आत्मा मुखरित हो गयी प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक गौरव की गाथा बन गये और सोहनलाल द्विवेदी की 'भैरवी' भारतीय अतीत के गौरवगान की दृष्टि से महत्वपूर्ण अनुभूतिपूर्ण चित्रण है। प्रगतिवादी युग में राष्ट्रीयता सिमटकर श्रमिक व दलित वर्ग की पीड़ा मुखरित करने लगी। स्वतंत्रता के बाद हमारी राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप बदल गया। 'सर्वोदय' का प्रचार किया गया, नवनिर्माण की प्रेरणा प्रदान की गयी। नई कविता व कहानी ने आधुनिक युग के तनाव, विघटन, संत्रास, पीड़ा, घुटन और वैयक्तिकता को बिना लाग-लपेट के व्यक्त किया। इन अभिव्यक्तियों में भी एक प्रकार की सार्थकता है, अर्थात् वे किसी क्षेत्र, जाति या समुदाय की ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय समाज की वंचनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। इस प्रकार राष्ट्रीय संस्कृति की सकारात्मक ही नहीं नकारात्मक अभिव्यक्तियाँ भी देश के 'यूनीवर्सल' को प्रमाणित करती हैं। साहित्य में सांस्कृतिक अनेकता में एकता, सृजनात्मकता के स्तर पर अभिव्यक्त होती है उसी पर राष्ट्रीय एकता अवलम्बित होती है। जब तक साहित्य एक समजित इकाई के रूप में स्थापित रहेगा, भारतीय संस्कृति निरंतर विकासमान रहेगी, फिर भारतीय साहित्य की 'प्रबुद्धि' ही अपने आप में एक शुभ लक्षण है।