रोहिंग्या संकट
रोहिंग्या संकट मानवता बनाम राष्ट्रवाद रोहिग्या शब्द से म्यांमार के रखाइन प्रांत में बसे इस्लाम धर्म को मानने वाले एक समुदाय विशेष को संबोधित किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि ये पूर्व के बंगाल राज्य (वर्तमान में बांग्लादेश के मूल निवासी थे, जिन्हें औपनिवेशिक शासनकाल में कृषि में श्रम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु म्यांमार में बसाया गया था। कालांतर में म्यांमार एवं भारत के स्वतंत्र होने तथा पूर्वीपाकिस्तान (जो बाद में बांग्लादेश के रूप में स्थापित हुआ) के गठन के बाद रोहिंग्या समुदाय के लोगों की स्थिति राज्य विहान की हो गई। न तो म्यांमार ने इन्हें अपने नागरिक की संज्ञा दी, न ही बांग्लादेश में इनकी वापसी का विकल्प बचा। इस समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति काफी निम्न होने तथा इनकी राजनीतिक सहभागिता लगभग नगण्य होने के कारण भी यह समुदाय अपने अधिकारों की मांग कर पाने में असमर्थ रहा। इस समुदाय के प्रति बहुसंख्यक बौद्ध आबादी का दृष्टिकोण भी नकारात्मक है। छिट पुट अपराधों से जुड़ाव के कारण इस समुदाय को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। कुछ लोग इस समुदाय के तार आईएस (I.S) एवं अलकायदा सहित अनेक अंतराष्ट्रीय आतंकी संगठनों से भी जुड़े होने की संभावना व्यक्त करते हैं। रखाइन प्रांत में रोहिंग्या समुदाय की कुल आबादी लगभग 10 लाख अनुमानित है। वर्ष 2014 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, रखाइन प्रांत की कुल आबादी लगभग 21 लाख है। इस जनगणना में लगभग 10 लाख आबादी की गणना शामिल नहीं है। जनगणना में परिगणित न होने वाले लोगों की ही रोहिंग्या मुसलमान माना जाता है। रोहिंग्या मुख्य रूप से रखाइन प्रांत के तीन उपनगरों मोंगडाव, बुधीडांग तथा राथेडोंग में बसे हुए हैं। यद्यपि रोहिंग्या संकट काफी लम्बे समय से चला आ रहा है तथापि मौजूदा राहिंगया संकट का प्रारंभ 25 अगस्त, 2017 से हुआ, जब 'अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (ARSA), जो एक चरमपंथी संगठन है, के द्वारा रखाइन प्रांत में पुलिस चौकियों को निशाना बानाकर हमला किया गया। इस हमले में 12 पुलिस अधिकारियों की मौत हो गई। इस हमले के बाद म्यांमार सरकार ने आरसा (ARSA) को आतंकी संगठन घोषित कर क्लियरेंस ऑपरेशन चलाया। सरकार के इस अभियान को स्थानीय बहुसंख्यक समुदाय का भी समर्थन प्राप्त हुआ। इस अभियान के दौरान सरकार पर आरोप लगा कि सरकार गुनाहगार एवं बेगुनाहों में विभेद किए बिना संपूर्ण रोहिंग्या समुदाय पर हिंसक हमले करवा रही है। अनेक रोहिंग्या गांवों को जला दिया जा रहा है, जिससे वे पलायन करन को मजबूर हो रहे हैं। सेना एवं पुलिस की इस दमनात्मक कारवाई के परिणामस्वरूप रखाइन प्रांत में निवासित रोहिंग्या समुदाया के लोगों में भय व्याप्त हो गया है तथा बड़ी मात्रा में ये लोग पलायित होकर माफ नदी पार कर बांग्लादेश आ रहे हैं। ध्यातव्य है कि माफ नदी का क्षेत्र दलदली एवं घने जंगलों वाला है। यहां से तीन से पांच दिनों की पैदल यात्रा कर बांग्लादेश आना अपने आप में किसी त्रासदी से कम नहीं है। इस यात्रा के दौरान जंगली जानवरों के हमले एवं विषैले कीड़ों के दंश का खतरा भी बना रहता है। जहां तक प्रश्न म्यांमार सरकार का है, तो उसका भी दृष्टिकोण रोहिंग्या समुदाय पर बहुत उदार नहीं है। म्यांमार में सरकार एवं धर्म का स्वाभाविक जुड़ाव नजर आता है। जहाँ बौद्ध भिक्षु समर्थन के लिए सरकार की ओर देखते हैं, वहीं सरकार भी अपनी वैधता के लिए बौद्ध भिक्षुओं की ओर दृष्टि लगाए बैठी है। यही कारण है कि अनेक अवसरों पर सरकारी कार्यों में तटस्थता का अभाव दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त म्यांमार में लंबे समय से तानाशाही शासन का इतिहास भी रहा है, जिस कारण यहां की सेना दमनात्मक कार्रवाई की आदी हो चुकी है। इसके अतिरिक्त इस देश ने न तो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संधि के तहत किसी जांच प्रक्रिया को स्वीकार किया है, न ही राजनीतिक एवं नागरिक अधिकारों पर किसी अंतर्राष्ट्रीय समझौते को म्यांमार द्वारा न तो उत्पीड़न के विरूद्ध संयुक्त राष्ट्र समझौते को माना गया है, न ही नस्लीय भेदभाव को खत्म करने के लिए अथवा जबरदस्ती गायब किए जाने के खिलाफ सुरक्षा देने वाले अंतर्राष्ट्रीय मानवीय समझौतों से न जुड़े होने की पृष्ठभूमि में म्यांमार सरकार का तर्क है कि म्यांमार सेना द्वारा केवल उग्रपंथियों के विरूद्ध अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान में मासूम रोहिंग्या निवासियों को कोई भी क्षति नहीं पहुंचाई जा रही है। मीडिया द्वारा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है तथा इसकी गलत सूचना भेजी जा रही है। म्यांमार कभी भी एक जातीय समूह के रूप में नहीं रहे हैं। ये चरमपंथ के पोषक रहे हैं। चरमपंथी रोहिंग्या उत्तरी रखाइन प्रांत में अपना गढ़ बनाने2की कोशिश भी कर रहे हैं। साथ ही इन रोहिंग्या चरमपंथियों संबंध अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठ से भी होने तथा उन आतंकी संगठनों द्वारा आरसा (ARSA) को प्रशिक्षित करने की सूचनाएं भी मिलती रहीं हैं। इस दृष्टि से म्यांमार सरकार रोहिंग्या चरमपंथियों के खिलाफ किसी भी रहम में इंकार करती है। रोहिंग्या समुदाय आज रास्ते के अंत में खड़ा है जहां से कोई भी सड़क आगे नहीं जाती है। कोई भी देश न तो इन्हें अपनाने हेतु तैयार है, न ही इन्हें शरण देकर पर्याप्त सुविधाएं देने हेतु तत्पर । म्यांमार में उत्पीड़न की स्थिति में रोहिंग्या समुदाय के प्रवसन हेतु बांग्लादेश सांस्कृतिक एवं भौगोलिक कारणों से एकमात्र विकल्प बचता है। इसी कारण वर्तमान संकट के समय रोहिंग्या समुदाय बड़ी मात्रा में बांगलादेशकी ओर रूख कर रहे हैं, परंतु उसके समक्ष भी संसाधनों की सीमित्ता का प्रश्न है। बांगलादेश की खुद की आर्थिक स्थिति इस लायक नहीं है कि वह 6 लाख से अधिक लोगों को शरण दे सके। इसके अतिरिक्त धार्मिक एवं सांस्कृतिक समरूपता के कारण रोहिंग्या समुदाय के लोगों को बांगलादेश की आबादी में विलीन हो जाने को जोखिम भी है। इतनी बड़ी मात्रा में प्रवसन से स्थानीय स्तर पर द्वंद्व तथा संघर्ष का खतरा भी बढ़ता दिख रहा है। यदि ऐसा होगा, तो बांगलादेश में सामाजिक वैमनस्य बढ़ेगा, जो देश के हित में नहीं होगा, क्योंकि वैसे भी बांगलादेश में सामाजिक द्वंद्व (उदारवादी बनाम चरमपंथी) काफी अधिक है। इन परिस्थितियों में बांगलादेशी) सरकार शरणार्थियों को वापस भेजने हेतु अंतर्राष्ट्रीय दबाव तथा वर्तमान शरणार्थियों के भरण-पोषण हेतु अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता का आह्नान कर रही है। बांगलादेश के पक्ष के बाद परि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के पक्ष को देखें तो संयुक्त राष्ट्र संघ रोहिंग्या को पश्चिमी म्यांमार का धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यक मानता है। यह रोहिंग्या को दुनिया के सबसे अधिक समाए हुए अल्पसंख्यक मानता है। संयुक्त राष्ट्र की इस संकल्पना के आलोक में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तीसरे स्वतंत्र पक्ष द्वारा इस संकट की जांच की मांग करता है। उनका कहना है कि म्यांमार सरकार द्वारा दमन की इस क्रूर कार्रवाई को तुरंत रोक देना चाहिए। इस हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ ने म्यांमार पर 'स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय फैक्ट फाइंडिंग मिशन' का गठन भी किया था जिसके प्रमुख मारजूकी दारूस्मान थे। परंतु यह मिशन म्यांमार में घुसने में नाकामयाब रहा था। इन चिताओं के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोहिंग्या समुदाय के लिए किए जा रहे प्रयास नाकाफी प्रतीत हो। रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय म्यांमार पर आर्थिक, राजनैतिक एंव कानूनी दबाव डालने के विकल्पों पर विचार करता प्रतीत नहीं हो रहा है। कुछ अंतर्राष्ट्रीय संगठन तथा कुछ देश केवल वित्तीय/ भौतिक मदद कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करते प्रतीती हो रहे हैं। रोहिंग्या संकट का भारत से कोई प्रत्यक्ष जड़ाव न होने के बावजूद क्षत्रीय स्तर पर भार के कद तथा उसकी अंतर्राष्ट्रीय छवि को देखते हुए विश्वभर की निगाहें भारत की ओर टिकी हुई। हैं। भारत के समक्ष भ किसी एक पक्ष की ओर से स्पष्ट रूप से खड़े होने के विकल्प का अभाव दिखता है। इस मुद्दे को लेकर समस्त भारतीय बौद्धिक वर्ग दो धड़ों में बंटा नजर आता है। एक थड़ा वह है जो राहिंग्या को शरणार्थी के बजाय अवैध प्रवासी मानता है तथा नए शरणार्थियों को शरण देना तो दूर मौजूदा रोहिंग्या शरणार्थियों को भी देश से निकालने का पक्षधर है। तो वहीं दूसरी और एक अन्य घड़ा रोहिंग्या को शरणार्थी मानता है तथा इन्हें भारत की ओर से वह समस्त सुविधाएं एवं अधिकार प्रदान किए जाने की वकालत करता है, जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत शरणार्थियों को प्राप्त होने चाहिए। रोहिंग्या को अवैध प्रवासी मानने वालों का तर्क है कि शरणार्थी अपने बगल के देश में जाते हैं, जबकि ये बांगलादेश के रासते अवैध प्रवासी मानने के साथ-साथ यह घड़ा इन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष भी एक बड़ा खतरा मानता है। इनके अनुसार, रोहिंग्या अतिवादियों के जिहाद का एक लंबा (दशकों पुराना) इतिहास रहा है। एक खुफिया रिपोर्ट के अनुसार, आरसा (ARSA) के पास कम-से-कम 600 हथियारबंद लड़ाके हैं तथा इनका संबंध अनेक प्रतिबंधित चरमपंथी संगठनों से भी है। ये उन संगठनों से वित्त के साथ-साथ प्रशिक्षण भी प्राप्त कर रहे हैं। वर्तमान भारत सरकार भी रोहिंग्या मुसलमानों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय में भारत सरकार ने खुफिया सूचनाओं का हवाला देते हुए तर्क दिया कि जो रोहिंग्या शरणार्थी यहां रह रहे हैं, में से कुछ लोगों के तार वैश्विक चरमपंथी संगठनों से जुड़े, हैं, इनमें से कुछ संगठन पाकिसतान के हैं। इस समुदाय के कई लोग राष्ट्रीविरोधी और गैर-कानूनी गतिविधियों में शामिल है। तथा ये धार्मिक अशांति का कारण भी बन सकते हैं, इसी कारण भारत सरकार देश में रह रहे 40 हजार रोहिंग्या मुस्लिमों को वापस भेजने के विकल्प पर भी विचार कर रही है, जिसमें से 16 हजार वे लोग भी हैं, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ ने शरणार्थी के तौर पर पंजीकृत किया है। परन्तु रोहिंग्या को लेकर भारतीय नीति में कुछ विरोधाभाव भी दिखाई दे रहा है। वैश्विक शांति के पोषक तथा हिंसा के समस्त रूपों की निंदा का स्वाभाव रखने वाले भारत का म्यांमार के समर्थन में खड़ा होना अस्वाभाविक-सा लगता है। भारत द्वारा म्यांमार को सर्मथन देने के अनेक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। इनमें से एक तो यह है कि म्यांमार की बहुसंख्यक बौद्ध जनसंख्या से भारत का स्वाभाविक जुड़ाव है। दोनों देशों में सांस्कृतिक समानता का पाया जाना इसका प्रमुख कारण है। इसी के साथ-साथ यह तथ्य भी काबिले गौर है कि म्यांमार पूर्व का प्रदेश द्वार भी है। भारत जिसकी विदेश व्यापार रणनीति के केंद्र में दक्षिण-पूर्व एवं पूर्वी एशियाई देश हों, के लिए म्यांमार का महत्व स्वतः ही बढ़ जाता है। म्यांमार में चीनी प्रभाव को कम करने हेतु भी भारत, म्यांमार के साथ प्रमुखता से खड़ा नजर आता है। अपनी पर्व की गलतियों से सबक सीखते हुए भारत अब म्यांमार को चीन की क्रीड़ास्थली बनने हेतु नहीं छोड़ सकता। म्यांमार भारत के लिए एक बड़ा बाजार भी है। म्यांमार में भारत के लिए सामरिक एवं व्यापारिक संबंधों की व्यापक संभावना विद्यमान है। म्यांमार के भौतिक संसाधन व ऊर्जा संसाधनों की उपलब्धता भारतीय हितों की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इन सबके अतिरिक्त भारत की आंतरिक सुरक्षा हेतु भी म्यांमार एक प्रमुख सहयोगी की भूमिका निभा रहा है या निभा सकता है। पूर्वोत्तर के विकास तथा पूर्वोत्तर के विद्रोहियों के दमन हेतु विगत कुछ वर्षों में म्यांमार ने काफी सहयोग किया है। इस तरह भारतीय आर्थिक एवं सामरिक हितों को देखते हुए भारत, म्यांमार की नाराजगी मोल लेने की स्थिति में नहीं दिखाई देता है। रोहिंग्या के संदर्भ में समग्रता से देखा जाये तो यह स्पष्ट होता है कि एक ओर रोहिंग्या म्यांमार में अनचाहे हैं, तो दूसरी ओर बाहरी दुनिया में भी उनका कोई मित्र नहीं दिख रहा है। यह समुदाय देशों के आपसी हितों की भेंट चढ़ा भी नजर आ रहा है। यद्यपि UNCHR, बांगलादेश तथा कुछ देशों द्वारा शरणार्थियों की आवश्यकतओं की पूर्ति हेतु प्रयास किए जा रहे हैं, परंतु अनेक अध्ययन इस ओर ध्यानाकर्षण करते हैं कि ये प्रयास इतनी बड़ी पलायित आबादी के लिए नाकाफी हैं। जो देश एवं संगठन रोहिंग्या समुदाय के प्रति संवेदना प्रदर्शित कर भी रहे हैं, वे मात्र आर्थिक सहयोग प्रदान कर अपने कर्तव्यों की अतिश्री करते दिखाई देते हैं। न तो कोई देश, न ही कोई संगठन इनके स्थायी पुनर्वास हेतु प्रयास करता प्रतीत होता है। रोहिंग्या समुदाय का इतिहास चाहे कुछ भी रहा हो, परंतु उनका वर्तमान म्यांमार से जुड़ा है। वे म्यांमार के लिए ही कार्य कर रहे हैं तथा म्यांमार की आय में योगदान कर रहे हैं। म्यांमार की भूमि और संसाधनों पर रोहिंग्या समुदाय का भी उठना ही हक है, जितना किसी अन्य समुदाय का यह बात म्यांमार को भी समझनी होगी और अन्य समुदाय का यह बात म्यांमार को भी समझनी होगी और अन्य देशों को भी। आंतरिक समस्याएं तो कमोवेश सभी देशों में होती हैं, परंतु उसके लिए परे लिए • समुदाय को दाव पर लगा देना तर्कसंगत नहीं होगा। म्यांमार का यह तर्क भी अर्थहीन है कि रोहिंग्या का अतीत बांग्लादेश से जुड़ा हुआ है, आज अतीत के कोई मायने नहीं है। यदि अतीत को देखा जाए, तो शायद ही किसी समुदाय के वास्तविक देश का निर्धारण किया जा सकता है, क्योंकि लगभग सभी समुदाय इतिहास में प्रवासित होते रहे हैं। अतः म्यांमार को संकीर्ण राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर मानवता का पोषण करना चाहिए तथा माननवीय नैतिकता के आधार पर रोहिंग्या समुदाय का देश के भीतर समस्त सुविधाएं उपलब्ध कराना चाहिए। एक बार रोहिंग्या समुदायको नागरिक अधिकार मिल जाएंगे, तो उनकी ओर से आवाज उठाने वाले भी खड़े हो जाएंगे। वैश्विक मंच से भी म्यांमार पर दबाव डालने की आवश्यकता है। इनमें भारत की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। क्षेत्रीय स्तर पर एक जिम्मेदार देश होने के कारण भारत को भी राष्ट्रवाद के साथ-साथ मानवत के संरक्षण पर भी जोर देना होगा तथा रोहिंग्या समस्या के स्थायी समाधान हेतु प्रयास करना होगा। भारत को इस हेतु अविलंब बहुपक्षीय वार्ता का आह्नान करना चाहिए, क्योंकि यह समस्या म्यांमा की आंतरिक समस्या मात्र न होकर मानवता के हनन का एक सार्वभौमिक प्रश्न भी है। रोहिंग्या समुदाय की इस संकट की घड़ी में सैद्धांतिक तर्कों को पीछे छोड़ते हुए व्यावहारिक प्रयास कि जाने की नितांत आवश्कता है। इस समुदाय के स्थायी पुनर्वास के साथ-साथ वर्तमान समय में रोहिंग्य शरणार्थियों की दैनिक आवश्यकतओं की पूर्ति पर भी सभी देशों को सहयोग करना चाहिए, क्योंकि यह प्रश्न मानवाधिकार के संरक्षण का है। मानवाधिकार सार्वभौमिक है तथा यह धर्म, लिंग, भौगोलिक सीमाओं, विचारधारा, राष्ट्रवाद आदि सभी से निरपेक्ष है। सभी देशों को इसके संरक्षण हेतु बिन शर्त एवं बिना स्वार्थ आगे आना चाहिए।