राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा
राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा हिन्दी राजभाषा का अर्थ है राजा या राज्य की भाषा वह भाषा जिसमें शासक या शासन का काम होता है और राष्ट्रभाषा वह है जिसका व्यवहार राष्ट्र के सामान्य जन करते हैं। राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र सीमित होता है, जैसे वर्तमान काल में भारत सरकार के कार्यालयों और सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायों के अतिरिक्त कुछ प्रदेशों, उदाहरणार्थ- हरियाणा, उ.प्र. म.प्र., बिहार, राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में राजकाज हिन्दी में होता है। तमिलनाडु बंगाल, महाराष्ट्र या आंध्र प्रदेश की सरकारें अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं। जबकि राष्ट्रभाषा का क्षेत्र विस्तृत और देश व्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क भाषा है। राष्ट्रभाषा के साथ जनता का भावात्मक लगाव होता है क्योंकि उसके साथ जनसाधारण की सांस्कृतिक परम्पराएं जुड़ी रहती है। राजभाषा के प्रति वैसा सम्मान हो तो सकता है, लेकिन नहीं भी हो सकता है, क्योंकि वह अपने देश की भी हो सकती है, किसी गैर देश से आए शासक की भी हो सकती है। वास्तव में, देश की संस्कृति से राजभाषा का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा सदा कोई स्वदेशी भाषा ही होगी। ध्यातव्य है कि राजभाषा की अभिव्यक्ति सीमित विषयों तक होती है मसलन-शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका आदि तक और यह अभिव्यक्ति क्रमशः रूड़ और रूक्ष हो जाती है। इसमें लालिमा, मुहावरेदारी या शैली वैविध्य का कोई स्थान नहीं होता है। हर दफ्तर की बनी बनायी शब्दावली है, वाक्यों का एक वर्ग है। जबकि राष्ट्रभाषा का संबंध जीवन के प्रत्येक पक्ष से होता है। लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि राजभाषा और राष्ट्रभाषा में परस्पर कोई लगाव नहीं है। सच तो यह है कि राजभाषा राष्ट्रभाषा पर अपना प्रभाव डालती है। कारण यह है कि जो भी भाषा राजभाषा के पद पर आसीन होती है लोग उसी में शिक्षा पाना आवश्यक समझते हैं। रोजी रोटी, सामाजिक प्रतिष्ठा और भौतिक लाभ के लिए युवा वर्ग में उसी भाषा का बोलबाला होता है। शासन की भाषा का अनुकरण होने लगता है। कचहरी और सरकारी कार्यालयों से संपर्क रखने वाले लोगों के द्वारा वही भाषा जनसाधारण में प्रचलित होती है। मध्य युग में फारसी का और आधुनिक युग में अंग्रेजी का हिन्दी पर जो प्रभाव पड़ा है और आज भी पड़ रहा है, वह सर्वविदित है। अतः यह कहना तर्कसंगत होगा कि राजभाषा की स्वाभाविक और आंतरिक प्रगति में बाधा पहुंचती है। स्मरणीय है कि भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् राजसत्ता जनता के हाथ में आई लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह आवश्यक हो गया है कि देश की राजकाज, लोक की भाषा में हो। अतः राजभाषा के रूप में हिन्दी को एकमत से स्वीकार किया गया। 14 सितम्बर, 1949 ई. को भारत के संविधान में हिन्दी को मान्यता प्रदान की गई। भारतीय संविधान के अनु. 343(1) में उल्लेख किया गया कि संघ की राजभाषा हिन्दी होगी। यह भी उल्लेखनीय है कि अनु. 343 (2) में संविधान के क्रियाशील होने से 15 वर्ष तक के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया था। अनु. 343 (3) में संसद को उक्त अवधि के बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत करने हेतु विधि-निर्माण का अधिकार दिया गया है। फलतः राजभाषा अधिनियम 1963 द्वारा यह उपबंध किया गया कि सभी राजकीय कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग 15 वर्षों तक होता रहेगा। पुनः राजभाषा नियम 1976 के तहत हिन्दी के साथ अंग्रेजी में कामकाज संबंधी प्रावधान को जारी रखा गया। जहाँ तक राष्ट्रभाषा का प्रश्न है तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने पर यह कहकर आपत्ति उठायी जाती है कि भारत की अनेक भाषाओं की तुलना में उसे अधिक गौरव दिया जा रहा है। हिन्दी का विरोध सबसे अधिक तमिलनाडु में है। वहाँ के राजनीतिबाजों ने हिन्दी विरोध को चुनाव का मुद्दा बना रखा है। यदि वे तमिल का समर्थन करते हैं तो बात समझ में आती, परंतु वे अंग्रेजी
का समर्थन करते है मानो अंग्रेजी से तमिल भले ही दूषित हो जाय या अंग्रेजी पढ़े-लिखे उनसे बाजी मार ले जायें तो कोई बात नहीं। सच्चाई यह है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने वाले उसे कोई गौरव प्रदान करने की भावना से ऐसा नहीं करते और न अन्य भाषाओं को उसकी तुलना में हीन बताने की भावना से वस्तुनः राष्ट्रभाषा शब्द के प्रयोग का ऐतिहासिक कारण है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए नहीं कहा गया कि वह राष्ट्र की एकमात्र या सर्वप्रमुख भाषा है, बल्कि इस नाम का प्रयोग अंग्रेजी को ध्यान में रखकर किया गया। अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी। अंगी के साथ अंगों का भी निराकरण आवश्यक हो जाता है। अंग्रेजी शासन सूत्र का विरोध करते समय उससे सम्बद्ध और भी जो वस्तुएँ थीं उनका विरोध आवश्यक हो गया। बात बहुत हद तक ठीक भी है। कि विदेशी भाषा का प्रभाव केवल शासन तक ही सीमित नहीं रहता, वह संस्कृति को भी प्रभावित करती है। इसलिए स्वाधीनता संग्राम के समय नेताओं ने प्रत्येक दृष्टि से स्वदेशीपन, या यों कहें कि राष्ट्रीयता की भावना जगाने की कोशिश की। यह नाम उसी प्रसंग में सामने आया। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को छोड़कर अपनी भाषाओं के प्रति उन्मुख होना चाहिए, यह उस आन्दोलन का लक्ष्य था। इसलिए कांग्रेस ने कानपुर अधिवेशन (1925) में यह प्रस्ताव स्वीकृत किया कि अपने सभी कार्यों में प्रादेशिक कांग्रेस कमेटियाँ प्रादेशिक भाषाओं अथवा हिन्दुस्तानी (हिन्दी) का प्रयोग करें और अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दी भाषा का प्रयोग हो। यह प्रस्ताव विदेशी भाषा के स्थान पर राष्ट्रीय भाषा के प्रयोग को स्थान देने के लिए स्वीकृत किया गया। जैसा कहा गया है, विदेशी शासन के विरुद्ध आंदोलन को सक्रिय बनाने का यह एक अंग था। दूसरी बात यह कि संपूर्ण राष्ट्र में संचार की कोई भाषा हो सकती है तो वह है हिन्दी हिन्दी की इसी विशेषता को ध्यान में रखकर उसे संविधान ने राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया। अतः समग्र राष्ट्र के लिए जो भाषा संपर्क करने का कार्य कर सके उसे राष्ट्रभाषा कहने में कोई हानि या आपत्ति नहीं है। यही कारण है जिनके आधार पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी जाती है। यह ध्यान रखने की बात है कि भारतीय संविधान में हिन्दी के लिए कहीं भी राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इसे या तो संघभाषा (Language of the Union) या संघ की राजभाषा (Official Language of the Union) कहा गया है। संघ भाषा कहने के पीछे भी उद्देश्य वही है जो राष्ट्रभाषा के पीछे जो भाषा सारे संघ के लिए प्रयुक्त हो उसे संघभाषा कहना उचित ही है। गौरतलब है कि भाषायी आधार पर राज्यों के निर्माण के पश्चात् प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक भाषा स्वीकृत हुई। इसको चाहे तो राज्यभाषा भी कह सकते हैं। किसी राज्य अथवा प्रदेश का शासन कार्य वहीं की भाषा में होगा जैसे बंगाल का बंगला में, तमिलनाडु का तमिल में, महाराष्ट्र का मराठी में इस सीमा में हिन्दी को दखल नहीं देना है। प्रत्येक राज्य की भाषा को अपना कार्य उस भाषा में करने की पूरी छूट और स्वतंत्रता है। किन्तु भारत 28 राज्यों का एक संघ है इसलिए राज्य की सीमा पार करने पर ऐसी स्थिति आती है जिसमें एक भाषा छोड़कर दूसरी भाषा से मुकाबला होता है। केरल की भाषा मलयालम है तो कश्मीर की कश्मीरी ये दोनों भाषाएँ परस्पर अबोध्य हैं। इस कठिनाई को दूर करना है। यह कार्य अंग्रेजी में हो, यह ठीक नहीं है। यह कार्य हिन्दी को करना चाहिए। इसलिए अंततः प्रादेशिक संचार के लिए हिन्दी आवश्यक है। एक प्रश्न यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच संचार की भाषा क्या हो? यह कार्य अब तक अंग्रेजी ने किया है. करती आ रही है, उसे अब हिन्दी करे तो आवश्यक है। इससे आगे बढ़ने पर अंतर्राष्ट्रीय संचार की स्थिति आती है जिसमें दूसरे देशों के साथ हमारा संपर्क अपेक्षित होता है। यह काम हम अक्सर अंग्रेजी से लेते रहे हैं, लेकिन उससे राष्ट्रीय सम्मान को अनेक बार ठेस पहुँचती है। यह उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो सभ्य-समुन्नत देश है। वह अपनी भाषा के माध्यम से ही अपना कार्य करते हैं और उसमें गौरव का अनुभव करते हैं। रूस, फ्रांस या चीन अंग्रेजी में अपने पत्रादि प्रस्तुत नहीं करते हैं। फिर हिन्दुस्तान जैसा समृद्ध परंपराओं का देश अंग्रेजी को गले लगाए रखकर हमेशा यह बताता चले कि हम दो सौ वर्षों तक पराधीन रहे हैं और उसकी यह निशानी है, कोई सम्मान की बात नहीं होगी। इसलिए हमें अंतर्राष्ट्रीय उपयोग के लिए भी एक भाषा रखनी होगी और वह स्थान हिन्दी ही ले सकती है। हाँ, अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग के मुताबिक हिन्दी को भी ढलना होगा। यह जानकर प्रीतिकर आश्चर्य होता है कि बाजार ने भी हिन्दी को सबकी 'पहली संपर्क भाषा' बनाने का काम किया। बहुराष्ट्रीय निगम अपने यहाँ अंग्रेजी के साथ हिन्दी जानने वालों को रखने की बात करते हैं। उनका मानना है कि वे कारपोरेट या सरकार से अंग्रेजी में निपट सकते हैं, लेकिन गाँव- कस्बे की हिन्दी वाली जनता से तो उसी के मुहावरे में निपटना होगा। कुल मिलाकर आज हिन्दी राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा के रूप में महती दायित्वों का निर्वहन कर रही है। सच पूछा जाय तो हिन्दी बोलचाल से, मनोरंजन के माध्यम से इंटरनेट, फेसबुक, ट्वीटर, ब्लॉग से और बाजार के उपभोक्ता ब्रांडों के माध्यम से बढ़ रही है। यह किसी भी सरकार की नीति से बड़ी ताकत है।