नारी शक्ति
नारी शक्ति को बल कैसे दें? ये अबला का तमगा अपने पास रखो ये चूड़ी बिंदी शृंगार है मेरा ये कड़छी से कम औजार है मेरा किसे कब, कहां, कैसे इस्तेमाल करूं, ये अधिकार है मेरा।" ये है आधुनिक भारत की भारतीय नारी आत्मविश्वास से भरी नित्य नए कीर्तिमानों को रचती, कल्पना के नूतन आकाश का सृजन करती, बंदिशों की बेड़ियों को तोड़ती। कभी कल्पना सरोज बन चुनौतियों को बौना, कभी अरूणिमा सिन्हा बन शिखरों को रौंदती कभी अवनी चतुर्वेदी बन आकाश को चुमती। कभी उर्मिला सोनवानी बन दरवाजे पर खड़ी बारात को दुत्कारती, तो कभी मालूमरदा थिमक्का बन अपनी ममतामयी छांव से समाज को संवारती संभालती। नाम कोई भी हो, उम्र कुछ भी हो ये हैं आधुनिक भारत के वे बेनाम चेहरे, जिन्होंने गुमनामी की भीड़ से निकल खुद अपनी पहचान बनाई है। ये वो सितारे हैं, जो खुद अपनी रोशनी के दम पर चमकते हैं और अनगिनत गुमनाम चेहरों को चमकाने का हौसला देते हैं। 74 प्रतिशत साक्षरता वाले समाज में 85 प्रतिशत पुरूष साक्षरता के पीछे 65 प्रतिशत महिला साक्षरता कुछ परेशान जरूर करती है। लेकिन वर्ष 1981 में 19.67 प्रतिशत, वर्ष 1991 में 22.27 प्रतिशत तथा वर्ष 2001 में 25.63 प्रतिशत कार्यकारी महिलाओं की संख्या (आंकड़े) श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार की वेबसाइट से बताती है कि कार्यकारी महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। नारी सशक्तिकरण के प्रयास धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। एक समय के सती प्रथा वाले इस देश में आखिर एक पल में महिलाओं के प्रति मानसिकता नहीं बदली जा सकती। समय की वेदी पर ज्योतिबा फुले, ईश्वरशरण विद्यासागर, राजा राममोहन राव, डी. के. कर्वे, जैसे सहस्त्रों युग पुरुषों को अपने कठोर परिश्रम के रक्त से उसे सींचना पड़ता है। नेहरू, गांधी, वल्लभ, बोस जैसे नायकों को राष्ट्र निर्माण के लिए नारी शक्ति को आह्वान हेतु आराधना करनी पड़ती है। तब जाकर सावित्री बाई फुले, भीका जी कामा, कल्पना दत्त, अरूणा आसफ अली, ऊषा मेहता, सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी जैसी नायिकाएं कर्म मंच पर आकर अपनी भूमिका निभाती हैं और तब जाकर प्राप्त होती है बहुप्रतीक्षित अनमोल स्वतंत्रता वो चाहे देश की हो या इस समाज की महिलाओं की। महिलाओं का सहयोग किसी भी कार्य में सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ऐसे में गरीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण जैसे सामाजिक विकृतियों से जंग ये आधुनिक भारत बिना महिलाओं के कैसे जीतेगा? इसी विचार को केन्द्र में रख कर संविधान निर्माताओं ने लिंग, जाति, वर्ण, भाषा, वंश आदि के आधार पर होने वाले विभेदों को निषेध कर भारत में महिलाओं को पुरुषों के समान समस्त अधिकार प्रदान किया। महिलाओं के समुचित सामाजिक विकास के लिए
उनके साथ होने वाले विभिन्न सामाजिक अन्यायों और शोषणों की समाप्ति के लिए सती प्रथा का अंत, बाल विवाह निषेध कानून, कन्या विद्याधन निषेध अधिनियम, शरियत प्रार्थना अधिनियम, वेश्यावृत्ति निवारण अधिनियम, 1956 स्त्री अशिष्टरूपण प्रतिबंध नियम, 1961 समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976, घरेलू हिंसा महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 जैसे बहुत से प्रावधान बने, जिन्होंने महिलाओं को सम्मान के साथ जीने, विवाह करने या ना करने, या उसे समाप्त करने का वैधानिक अधिकार उन्हें प्रदान किया। घर के अंदर या घर के बाहर या कार्य स्थनों पर होने वाले अत्याचारों से संरक्षण प्रदान करने के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 तथा कारखाना अधिनियम, 1948, घरेलू हिंसा महिला संरक्षण अधिनियम, 2005, मातृत्व लाभ अधिनियम 1962, कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध एवं निदान) अधिनियम, 2013 जैसे बहुत से प्रावधान घर के बाहर महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर कार्य करने की अनुकूल परिस्थितियों का विकास करते हैं। जैसे-जैसे भारतीय नारी ने समाज में खुद को साबित किया है, समाज में उसकी सहभागिता बढ़ी है और सरकारों ने महिलाओं से संबंधित विभिन्न क्लयाणकारी और विकासात्मक योजनाओं द्वारा समाज में उनकी अधिकाधिक भागीदारी को प्रेरित किया है। कस्तुरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना, स्वाधार घर योजना, किशोरियों के सशक्तिकरण के लिए राजीव गांधी परियोजना (सबला), उज्जवला योजना, स्टार्ट-अप के कई कार्यक्रमों और कौशल विकास प्रशिक्षण की कई योजनाओं में महिलाओं को प्राथमिकता प्रदान कर सरकार महिलाओं की शिक्षा, विकास, स्वास्थ्य, कौशल, उद्यमिता विकास को प्रेरित कर रही है। ध्यातव्य है कि वित्त शक्ति प्राप्त होने के पश्चात एक नारी स्वावलंबी हो पाती है और सही अर्थों में शक्ति संपन्न। महिलाओं के अधिकार प्राप्त करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों के लिए नब्बे का दशक महत्वपूर्ण रहा। जब भारत में महिला के अधिकारों के प्रति उन्हें जागरूक करने उनके अधिकारों का संरक्षण करने और सुलभता से उनके अधिकार उन्हें प्राप्त हों, के लिए देश में राष्ट्रीय महिला आयोग अस्तित्व में आया। राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की राजनैतिक भागीदारिता को सुनिश्चित करने के लिए 73वां और 74वां संवैधानिक संशोधन एक मील का पत्थर साबित हुआ। इन संवैधानिक संशोधनों के द्वारा समाज के सबसे निचले पायदान की राजनैतिक व्यवस्था में महिलाओं ने नीति निर्माण और समाज उत्थान में अपनी भागीदारिता निभायी। वर्ष 2008-12 तक विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की वित्त मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने एक उद्बोधन में अपने आदर्श व्यक्तियों की सूची में एक नाम भारतीय गांव की सरपंच इला भट्ट का लेकर भारतीय नारी के उत्साह और गौरव को बढ़ाया। निःसंदेह भारतीय महिलाओं ने अपने विकास के मार्ग का एक लंबा फासला तय किया है, किंतु पुरुषवादी भारतीय समाज में अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। 17वीं लोक सभा में 543 में से 78 महिला सांसदों की संख्या इतिहास में सबसे ज्यादा महिला सदस्यों वाली लोक सभा है। लेकिन महिला और पुरुष सांसदों की संख्या का ये अंतराल स्पष्ट है। इसी क्रम में मुस्लिम महिलाओं के उत्थान हेतु उनके अधिकारों की वकालत करते ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण मानने की आम सहमति सभी राजनैतिक दलों में है, किन्तु इस बिल के अधिनियम बनने से भारतीय मुस्लिम महिलाओं को स्थायी मानसिक शांति और उनके मानसिक भयादोहन का भय दूर होगा। हाल के वर्षों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसक घटनाओं की रोकथाम के लिए देश की संसद ने बहुत ही कठोर प्रावधानों का विकास कर महिलाओं का संरक्षण प्रदान किया। निःसंदेह सरकारों के ये समस्त प्रयास सराहनीय और स्वागत योग्य हैं, किंतु यहां यह कहना अनिवार्य है कि सरकारों द्वारा निर्मित अच्छे से अच्छे कानून की सफलता उसके क्रियान्वयन पर निर्भर करती है और इसका क्रियान्वयन प्रशासनिक ढांचे के साथ-साथ समाज के उस वर्ग पर निर्भर करता है, जिसके लिए कानून अस्तित्व में आता है। अतः कानूनों के निर्माण के साथ-साथ उस कानून
प्रति समाज में स्वीकार्यता और जागरूकता बेहद जरूरी है। संचार क्रांति के इस युग में किसी भी योजना को सरकार अब बेहतर तरीके से आम आदमी तक पहुंचा सकती है। यहां किसी भी योजना अथवा कानून की जानकारी तक पहुंचा सकती है। यहां किसी भी योजना अथवा कानून की जानकारी और स्वीकार्यता से आशय अंतिम रूप से एक महिला के अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर उसका लाभ लेने और संपूर्ण समाज का इसमें सहयोग करने से है। नारी को बल, नारी के प्रति समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाकर ही दिया जा सकता है, जिसकी शुरूआत समाज के भावी नागरिकों के निर्माण केंद्र परिवारों और विशेषकर विद्यालयों से होनी चाहिए। स्त्री और पुरूष दोनों इस समाज के नागरिक हैं और समाज निर्माण में दोनों की सहभागिता जरूरी है, जैसे विचारों को बच्चों के बाल मन में रोपित कर सभी को समान अधिकार प्राप्त करे की दिशा में एक सार्थक कदम बढ़ाया जा सकता है। नारी बलवती है, क्योंकि वह जितने कार्यों को एक साथ कर सकती है वह किसी के लिए उतना संभव नहीं है, परंतु नारी को सामाजिक शक्ति प्रदान कर उन्हें विश्व कल्याण के लिए मुख्यधारा से जोड़ना अत्यन्त आवश्यक है। इस कार्य हेतु नारी का स्वयं एक होकर आगे बढ़ना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।