गांधीवाद आज भी प्रासंगिक है
महात्मा गांधी, राष्ट्रपति, बापू, शांतिदूत आदि पदनामों से अभिहित मोहनदास करमचंद गांधी के व्यक्तित्व, विचार, प्रभुत्व और प्रभाव के बारे में, यह चाहे समर्थन में हो या विरोध में, उनकी प्रशंसा में हो या निंदा में, बहुत सी बातें होती रही हैं। जहां एक ओर आइंस्टाइन जैसे व्यक्ति ने राजनीतिक इतिहास में गांधीजी की उपलब्धियों को अभूतपूर्व करार दिया था और कहा थ. "भावी पीढ़ियों के लिए यह विश्वास करना कठिन होगा कि हाड़-मांस का बना एक ऐसा आदमी भी कभी इस धरती पर विचरण करता था" तो दूसरी ओर विंस्टन चर्चिल जैसा राजनीतिज्ञ उन्हें 'नंगा फकीर' कहकर मजाक उड़ाता था। भारत में ही जहां डॉ. अम्बेडकर उन्हें संदेहास्पद और अविश्वासनीय बातते थे, तो कट्टर हिन्दू और मुस्लिमवादी जमातों के लिए वे अपने दौर के सबसे बड़े शत्रु थे। फिर भी तमाम प्रशंसाओं आलोचनाओं के बीच यह निर्विवाद है कि सामाज्यवादियों की धन लिप्सा और विस्तार लिप्सा की दानवी प्रवृत्त और इनकी सत्ता के उत्पीड़न की शिकार जनता को मुक्ति की राह दिखाने के लिए गांधीजी विश्वमंच पर एक महामानव रूप में उभरे और उन्होंने स्वतंत्रतोन्मुखी जनसंघर्षो को व्यापक रूप से प्रभावित किया। मार्टिन लूथर किंग से लेकर नेल्सन मंडेला और आंग सान सू की तक अपनी-अपनी तरह से मुक्ति संघर्ष चलाने वाले राजनेताओं की कई पीढ़ियां उनसे प्रभावित हुई सफल भी हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने प्रेरणा स्त्रोत के रूप में मार्टिन लूथ किंग के साथ-साथ प्रायः गांधीजी का भी उल्लेख करते हैं। गांधीजी के विचारों या फिर गांधीवाद की वर्तमान में प्रासंगिकता के प्रश्न पर विचार करने से पहले गांधीजी के विचारों एवं उनके आदर्शों को समझना जरूरी है। महात्मा गांधी का जीवन-दर्शन इच्छाओं की उच्छृंखलता के विरूद्ध उन पर नियंत्रण तथा भौतिकता की पूजा करने के विरूद्ध आध्यात्मिक साधना है। सत्य और अहिंसा इसके सक्षम औजार हैं। जो अपने ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है, वही दुनिया पर विजय प्राप्त कर सकता है। हैरत की बात है कि तीस-चालीस वर्षों तक भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का नेतृत्व हुए और सक्रिय राजनीतिक जीवन बिताते हुए भी गांधीजी मूलतः एक नैतिक शिक्षक का कार्य करते रहे। सत्य और अहिंसा उन्हें इतने प्रिय थे कि उनकी कीमत पर उन्हें स्वाधीनता भी नहीं चाहिए थी। हजारों लोगों ने अपने व्यक्तिगत जीवन में गांधीजी के इस आदर्श को उतारा लाखों लोगों ने गांधीजी की इस सीख में अपना विश्वास प्रकट किया और करोड़ों लोग गांधीजी के भक्त और प्रशंसक बना। भारतीय इतिहास ने तीन-चार दशकों की इस अविध को “गांधी युग' के नाम से दर्ज किया।
गांधी जी एक समाजवादी थे क्योंकि वे व्यक्गित असमानता का पूर्ण विरोध करते थे। परन्तु उनका समाजवाद स्वदेशी पर आधारित था, जिसके तहत उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में समानता लोन पर बल दिया। गांधीजी के समाज के सभी वर्गों के उत्थान के लिए रचनात्मक कार्यों को रोकने के साथ-साथ तीन महत्वपूर्ण सिद्धांतों सत्याग्रह की अवधारणा, सर्वोदय का सिद्धांत व न्यासधारिता के सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया। सत्याग्रह वस्तुतः सत्य की विजय हेतु किए जाने वाले अध्यात्मिक व नैतिक संघर्ष का नाम है। अपने पत्र 'यंग इण्डिया' में सत्याग्रह के संबंध में गांधीजी ने लिखा है, 'सत्यग्रह आत्मा की शक्ति है'। इसके माध्यम से सत्य और अहिंसा के आधार पर असत्य पर आधारित बुराई का विरोध किया जाता है। सत्याग्रह आधुनिक विश्व को गांधीजी की एक बहुत बड़ी देन है। यद्यपि सर्वोदय की अवधारणा भारतीय संस्कृति में कोई नई अवधारणा नहीं है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' का आदर्श वैदिक काल से ही चला आ रहा है। इसी आदर्श को वैश्विक स्तर पर लाने का श्रेय गांधीजी को जाता है। सर्वोदय से तात्पर्य समाज के सभी वर्गों एवं व्यक्तियों के कल्याण से है। यह नवीन सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक मूल्यों को जन्म देती है। सर्वोदयी अवधारणा के अंतर्गत स्वतंत्रता व समानता को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है, जो आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य के प्रमुख आधार हैं। लोकतंत्र का सार भी इसी बात मे ही छुपा हुआ है कि सारी जनता को सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में पर्याप्त स्वतंत्रता एवं समानता की स्थिति प्राप्त हो। गांधीजी के अनुसार, श्रम मानवीय जीवन को गरिमा प्रदान करता है, जबकि पूंजी स्वार्थ का प्रतीक है। उनके अनुसार सारी संपत्ति परमेश्वर की है मनुष्य केवल इसका संरक्षक है। अत: पंजीपतियों के पास आवश्यकता से अधिक धन को जनहित के कार्यों में लगाना उनका कर्तव्य है। गांधीजी का मानना था कि सामाजिक व्यवस्था का आधार घृणा, संघर्ष अथवा हिंसा नहीं बल्कि प्रेम तथा विश्वास है। वे समाज की स्थापना का नैतिक मूल्यों के आधार पर स्वीकार करते थे। अतः पूंजीपतियों व अमीरों को यह विश्वास दिलाया जाए कि उनके पास जो आवश्यकता से अधिक धन है, वह समाज की धरोहर है तथा उसे उन्होंने इसलिए रखा है कि उसका उपयोग जनहित एवं कल्याणकारी कार्यों में हो सके। इस प्रकार गांधीजी का न्यासधारिता का सिद्धांत प्रेम, विश्वास तथा नैतिकता पर आधारित है, जो गांधीजी की अपरिग्रह की धारणा पर विकसित हुआ है। भारतीय परंपरा की विरासत तथा पश्चिमी विचारकों के माध्यम से गांधीजी को ऐसी विचार राशि मिली, जो आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की संतान 'पूंजीवाद' को ठुकराती थी और साम्राज्यवाद को भी, जिसने युद्ध तथा नरसंहारों के माध्यम से खुद को स्थापित किया था। यहां से आगे बढ़कर उन्होंने लगभग पूरी तरह से पश्चिमी सभ्यता को ही ठुकरा दिया। पश्चिम सभ्यता का इस तरह ठुकराया जाना, उस भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता के दावे का प्रस्थान बिंदु बन गया, जिसमें न तो पूंजीवाद था और न ही जिसने अभी साम्राज्यवाद का रूप ग्रहण किया था। इस तरह भौतिक दृष्टि से भारतीय सभ्यता की गरीबी ही गांधीजी के लिए उसकी श्रेष्ठता के दावे का आधार बन गयी। गांधीजी स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि पुरुष जो कुछ कि भी कर सकते हैं, स्त्रियां भी वह सब कर सकती हैं। एक बार एक पत्रकार ने गांधीजी से पूछा। अगर अहिंसा के अंतर्गत युद्ध की इजाजत होती तो क्या औरतें भी सैनिक हो सकती थी? गांधीजी का जवाब था- "औरतें, पुरुषों से बेहतर सैनिक तथा जनरल साबित होगी" वर्तमा में सेना में औरतें अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर हैं भी। गांधीजी अपने आपको सनातनी हिंदू कहते थे और इसके आधार पर मंदिरों में प्रवेश के लिए अछूतों के आंदोलन का समर्थन करते थे। गांधीजी छूआ-छूत के विरोधी थे। गांधीजी के लिए राम ईश्वर थे और उनकी कल्पना के रामराज्य का संकीर्णता से कोई वास्ता नहीं था। इसमें राम का वही अर्थ है, जो कबीर के यहां राम का अर्थ है। इसलिए स्पष्ट है कि गांधीजी की धार्मिकता श्री मानवतावादी मूल्यों के विस्तार और व्यवहार पर आधारित थी।
देश के कारीगर, किसान, आदिवासी सुखी नहीं हैं। वे अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं, तो उसे दबाने के लिए लगातार हिंसा जारी है। अंग्रेजी शासन के दौरान बिखर चुकी हमारी राजनैतिक, सांस्कृतिक व आर्थिक व्यवस्था को गांधीजी पुनः जोड़ना चाहते थे। लेकिन आजादी के बाद नेतृत्वकर्ताओं में गांधीजी वाली नजर नहीं थी और वे पाश्चात्य अर्थतंत्र को ही अपना आदर्श मानने लगे। नेहरू जी ने अपने अंतिम दिनों में कहा भी कि बड़ी गलती हुई कि हमने गांधी जी की बात नहीं मानी। लेकिन उसके बाद भी लोग नहीं संभले बात यह भी है कि विश्व बैंक और के हित के लिए काम करने वाले देश के हित के लिए क्यों सोचेंगे? उन्हें पाश्चात्य आर्थिक ढांचा ही अधिक मनभावन लगता है। वे यह भूल गए हैं कि पाश्चात्य तंत्र दुनिया को कब्जे में लेने वाला तंत्र है। गांधी जी ने वर्ष 1917 में कहा था कि "पाश्चात्य देशों ने ऐसी व्यवस्था खड़ी की है, जिसके लिए उनको दुनिया भर में अपने गुलाम बनाने पड़ेंगे क्योंकि वे अपने संसाधनों से अपना जीवन-तंत्र नहीं चला सकते। गरीब पैदा करना, इस तंत्र का स्वभाव है। जब बहुत बड़ा वर्ग गरीबों का होगा, तब एक छोटा वर्ग राजकर्ताओं का होगा।" हिंदुस्तान की व्यवस्था भी उसी की अंगीभूत हो गयी है। आर्थिक विकास के लिए शहरों का बढ़ते जाना भी गांधीजी के विचारों के खिलाफ है। जरूरत गांवों को समृद्ध करने की है। हमारे राजनेताओं ने गांधीजी को नकार कर देश के असली विकास को ही नकारा है। अब वापस लौटाकर गांधीवादी आर्थिक रास्ते पर चलते हुए ऐसे अर्थतंत्र की दरकार है, जिसकी पहुंच देश के अंतिम व्यक्ति तक हो। यह सोचने की जरूरत है कि ग्रामीणों के हाथों में मजदूरी की जगह उद्योग कैसे पहुंचे? मौजूदा हालात को सुधारने में देश के बौद्धिक वर्ग की बड़ी भूमिका हो सकती है। आध्यात्मिकता, बौद्धिकता या वैचारिक संपन्नता की तुलना में भौतिक संपन्नता तो बहुत कुछ तुच्छ चीज है। जीवन के पुरुषार्थों में धन कमाना भी शामिल है, लेकिन वह वन किस कॉम का जो हमें मानवीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों से दूर करे। आधुनिक जीवन की बेचारगी और व्यर्थता का कारण यही है कि इस जीवन दर्शन में संयम के लिए कोई नहीं है। गांधीजी अपरिग्रह एवं संयम की बात करते थे। सवाल यह है कि दुनिया में कितने लोग महात्मा गांधी का अनुसरण कर जिंदगी बिता सकते हैं? झोपड़ी में रहना कितने लोगों को कबूल होगा? सामान्य आदमी अपनी इच्छाओं को पूरा करने में सुख प्राप्त करता है। इसलिए गांधीजी के विचारों की प्रशंसा तो बहुत की जाती है, लेकिन उसके अनुसार जीवन जीना बहुत कठिन है। आज बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, स्वामी विवेकानंद आदि के विचारों की पूजा एवं प्रशंसा जारी है और उसके समानांतर भोग की संस्कृति पुष्ट होती जा रही है। यह दोहरापन ही जीवन की मूल समस्या है। जैसा कि गांधीजी ने कहा था कि, "प्रकृति के पास इतना है कि वह सबकी जरूरतों पूरी कर सकें, पर इतना नहीं कि एक भी आदमी के लालच को संतुष्ट कर सके"। फिर भी लालच हमसे छूटता नहीं और समाज में भौतिक उपलब्धियों की प्रतिद्वंद्विता जारी रहती है। गांधीजी जिस ग्राम-स्वराज की बात करते थे, उसमें सुख-सुविधाओं को कम करने की बात है, न कि उनका निरंतर विस्तार करेन की। पर यहां एक सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या ऐसा जीवन उबाऊ नहीं होगा? आखिर इस स्थिर जीवन की ऊब को पीछे छोड़ते हुए ही तो मानव समाज यहां तक पहुंचा है। औद्योगिक क्रांति ने एक तरह से परम आज्ञाकारी तथा पलक झपकते ही सब कुछ ला हाजिर करने वाला जिन्न हमें सौंप दिया है। इस जिन्न को मारकर कृषि सभ्यता की ओर लौटना कौन चाहेगा? अतः कोई विचार समाज की आत्मा में बस जाए, इसके लिए उसे मानव प्रकृति और उसकी व्यावहारिक जरूरतों की कसौटी पर खरा भी उतरना होगा। आज गांधीजी के विचारों एवं आदशों का हत्र अधिक शोकपूर्ण है। भले ही गांधीजी की जन्मतिथि 2 अक्टूबर को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में घोषित कर दिया गया हो, भारत में आयोजनों के साथ अवकाश मनाया जाता हो,
स्वाबलम्बन' पर आधारित है। इसकी दृष्टि समाज के हर तबके और हर स्तर पर है। गांधीजी के स्वदेशी ढांचे के अनुसार, हर व्यक्ति तथा समाज की हर इकाई अपने अन्न, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य शिक्षा और जीवन के आनंद के लिए किसी पर निर्भर न रहेगा। आज बाजार के सिद्धांतों का चारों ओर बोलबाला है और सब कुछ उसके हवाले करने की प्रक्रिया जारी है, जबकि उस बाजार का सिद्धांत उत्पादक और उपभोक्ता के बीच काफी दूरी बनाए रखने का है। वह अपनी शर्तें खुद तय करता है, उसमें समाज की कोई भूमिका नहीं होगी। उसकी प्राथमिकता में केवल मुनाफा होता है और मोनाफाखोरी से शोषण बढ़ता है। आज किसी भी उद्योगपति की सफलता का मानदंड क्या है? समाज सेवा या राष्ट्र सेवा नहीं, बल्कि अधिकतम मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति और गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ने ही उसे सफलता के शीर्ष तक पहुंचाया है। इसलिए गांधीजी आज भी प्रासंगिक है। पिछले साठ सालों से हमारे नीति नियंताओं द्वारा जो रास्ता अपनाया गया, उसने एक बड़ी आबादी को भुखमरी और कंगाली की कगार पर खड़ा कर दिया है। इस मामले में हमारे देश की तुलना आज अफ्रीकी महाद्वीप के गरीब से गरीब देशों से की जाने लगी है। आज जरूरत इस बात की है कि देश के नीति-नियंता वर्तमान आर्थिक नीतियों और समूचे आर्थिक ढांचे पर एक बार पुनः विचार करें एवं आम जनता को केन्द्र में रखकर नई नीतियों को अस्तित्व में लाकर उन्हें लागू किया जाए। दुनिया के जिस अर्थतंत्र में देश आज फंस गया है, उसमें से इसे निकालना अत्यंत जरूरी है अगर ऐसा नहीं हुआ तो भुखमरी, गरीबी, असंतोष और फिर उसकी वजह से विद्रोही व हिंसा बढ़ेगी। वर्तमान भौतिकवादी युग में चौतरफा टूट रहा हमारा समाज तभी सुदृढ़ और समृद्ध होगा, जब हर व्यक्ति को लगे कि यह देश अपना है और देश के नीति-नियता जनहितों को प्राथमिकता देते हैं। इसलिए राष्ट्र संचालन के सभी तत्वों में आम लोगों का सीधा दखल होना चाहिए। पंचायतीराज इसी कल्पना का अंग था, लेकिन दुर्भाग्यवश उसे आधुनिक राज्य तंत्र का गुलाम बना दिया गया है। आर्थिक क्षेत्र में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने आस-पास के संसाधनों को उपयोग समाज को मजबूती प्रदान करता है। इससे समाज सुदृढ होता है और उसका कौशल भी विकसित होता है। देश में कारीगरी की कई कमी नहीं थी, लेकिन आज गांवों में जीवन को चलाने वाले लोहा, सानार, कुम्हार, आदि कारीगर नहीं मिलते। विदेशों से आयातित सामानों की पैठ गांव-गांव और घर-घर तक हो गयी है, जिससे ग्रामीण उद्योग मृतप्राय हो गए हैं। वहीं सरकारें इनके प्रति उदासिन हैं। विज्ञान और प्रौद्यागिकी के प्रयोग से उन स्वाभाविक कारीगरों की दक्षता बढ़ानी चाहिए, वही असली धन व पूंजी हैं। समाज की हर इकाई में ऐसा करने से बेरोजगारी का नामोनिशान नहीं रहेगा। इस तरीके से भारी खर्च वाली माल की बुलाई प्रणाली की भी जरूरत नहीं रहेगी। कोशल, पूंजी, संसाधन, विज्ञान, तकनीकी और संगठन आदि एक-दूसरे को आपस में गूंथकर समाज की हर इकाई में देश को खड़ा करने की ठान लें तो यह देश स्वतः आत्मनिर्भर हो जाएगा। गांधीजी यही चाहते थे। गांधीजी ने आत्मनिर्भरता का आधार स्वदेशी को माना गांधी जी को स्वदेशी सिद्धांत अपने पड़ोसी की सेवा और उसका उपयोग है। सरकार की सभी रोजगार योजनाएं मोहताजगीरी की योजनाएं हैं। इसके बजाए आज देश के युवाओं को स्वावलंबी बनाने वाली योजनाओं और आर्थिक ढांचे की जरूरत है। गांधीजी का मानना था कि अगर व्यक्ति मोहताज नहीं है तो देश मोहताज नहीं होगा। परंतु वर्तमान में इसका उल्टा हो रहा है और इसकी वजह से भ्रष्टाचार, अपराध और हिंसा विद्रोह के मामले देश में दिन-व-दिन बढ़ते जा रहे हैं। वर्ष 1967 में एक गांव से शुरू हुए नक्सलवाद की चपेट में आज देश का लगभग एक-तिहाई हिस्सा आ गया है। आम जनता को सरकारक से दूरियां बढ़ती जा रही है। फिर भी भारतीय मुद्रा पर उनका चित्र छपा रहता हो, सरकारी कार्यालयों में उनके चित्र टंगे रहते हों, गाहे-व-गाहे कुछ लोग उनका स्मरण भी कर लेते हों, मगर राजनैतिक दलों सरकारों और जनता के व्यवहार से गांधीजी पूरी तरह से गायब हैं। गांधीजी के प्रभाव में कमी जो भारत के विभाजन के बाद से शुरू हो गयी थी, उनको हत्या के बाद उनके विचारों की हत्या करने का एक चक्र हमारे देश की सरकारें पूरा कर चुकी हैं। आज राज्य की चिंता में न गरीब कहीं है, न गांव, न सादगी कहीं है, न आत्मशुद्धि नही अहिंसा की चर्चा है और न सत्य की। हां, ईमानदारी और सादगी का ढोंग जरूर किया जाता रहा है। कभी-कभी सत्याग्रह का प्रहसन भी दिखाई देता है, जो गांधीजी के रास्ते का अनुसरण कम, उसका मजाक बनाना ज्यादा प्रतीत होता है। जिस समय भारतीय राज्यतंत्र एफ.डी.आई. के माध्यम से विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के लिए दंडवत पड़ा हुआ हो, उस समय गांधी का प्रसंग भी बेतुका लगता है। सत्ता चाहे क्रांन्ति के माध्यम से प्राप्त की गयी हो या अहिंसक सत्याग्रह के जरिए, विदेशी हाथों से देशी हाथों में अंतरित हुई हो या प्रत्यक्षतः जनता द्वारा चुनी गयी हो, अंततः पूंजी की गोद में क्यों जा बैठती है और क्यों अपने ही लोगों के शोषण दोहन पर उत्तर आती है ? आज की पीढ़ी को इस प्रश्न का उत्तर भी खोजना है और वह रास्ता भी, जिसके जरिए ऐसी राजसत्ता स्थापित की जा सके जो पहूंजी की दलाली करने के बजाए सचमुच जनता के हित में, जनता के लिए खड़ी रहे। पिछले सदी ने गांधी जी को देखा तो मौजूदा सदी अपने भटकावों के बीच उन्हें तलाश रही है। नीति-नैतिकता, मूल्य-बोध और व्यवहार की अब भी सबसे बड़ी कसौटी का नाम हे महात्मा गांधी। पर क्या इस कसौटी को साथ लेकर लालसा, प्रतिस्पर्द्धा और विकास की आधुनिक चुनौती को जीता जा सकता है? अहिंसक जीवन-मूल्य भोग की संस्कृति की अवधारणा को ही खारिज करता है, तो क्या आज गांधीजी को पूरी तरह स्वीकार पाना मुश्किल है या फिर इसकी दरकार ही नहीं है? क्या जीवन और विकास की नई सीख एक ऐसी दिशा खोज पाने में सक्षम है जिसमें मानव अस्मिता को कोई खरोंच न लगे ? 21 वीं सदी में गांधी क्यों? इस सवाल का जवाब एलविन टॉफलर की बातों में नजर आता है-"जरूरत है मनुष्य जाति को सुलम नवीनतम विज्ञान और गांधी की कल्पना के ग्राम गणतंत्र के बीच एक नया संतुलन हासिल करने की। इसे हासिल करने के लिए समाज का पूर्ण रूपांतरण जरूरी है। रूपांतरण सामाजिक मूल्यों और प्रतीकों का, शिक्षा व्यवस्था और ऊर्जा प्रबंधन का, वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध का और तमाम संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं का।" विनोबा भावे ने कहा थी कि" यह आदमी कोई पुरानी किताब नहीं था, जिसमें कुछ नया न जुड़े, जिसके बस नए संस्करण निकलते रहे। गांधीजी आज होते तो क्या करते, क्या न करेगी यह सही सवाल और तरीका नहीं है। उनसे विचार मिला, ऐसा मानकर स्वतंत्र चिंतन करना चाहिए"। गांधीजी के पास रणनीतियों नहीं, नीतियां हैं। इसलिए पूंजी के लिए पगलाए इस समाज में और पूंजी के लिए भिखमंगी हो रही सरकारों के इस दौर में गांधीजी कहते हैं, "सामाजिक विकास व मानवीय संतोष के लिए जरूरी है कि पूंजी बने, पूंजी बढ़े और पूंजी बंटे ये तीनों कदम जो समाज सुनिश्चित करेगा, वही संपन्नता सहकार और शांति का मीठा फल चख पाएगा।" यहीं आकर साम्यवाद ऐसा फिसला कि टूटकर बिखर गया। यहीं आकर जवाहर लाल नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था ने घुटने टेक दिए, यहीं आकर माओं का चीन जमींदोज होकर पूंजीवाद की चरण वंदना करने लगा और यहीं आकर पूंजीवादी व्यवस्था के शिखर यूरोप-अमेरिका ढहते नजर आ रहे हैं। इसलिए गांधीजी ने पूंजी को लागातार योजनबद्ध तरीके से बांटते रहने की हिदायत दी थी।. दर्द है तो इस बात का की वर्तमान अर्थव्यवस्था में पूंजी की भूमिका मात्र शोषक की है। इसलिए लोग पूंजी के शिकार हो रहे हैं। ऐसे में हमें फिर गांधी जी के पास ही आना होगा। आज गांधीजी हमारे बीच नहीं है, लेकिन वक्त जब भी हमारी उपेक्षा करता है, तो समस्याओं के मोड़ पर उनके विचार हमारे साथ हो लेते हैं।