आतंकवाद एक वैश्विक चुनौती
आतंकवाद का बदलता और बढ़ता स्वरूप वैश्विक चुनौती आतंकवाद एक ऐसा विचार है जो कि सामान्य जन-मानस में भय की भावना उत्पन्न करे। मय मृत्यु का या आर्थिक, सामाजिक किसी भी श्रेणी का हो सकता है। परंतु आतंकवाद शब्द हमारे मस्तिष्क पटल पर आते ही सर्वप्रथम यही अर्थ दृष्टिगोचर होता है कि हथियारों से लैस कुछ उग्रवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या। यह इतने भयवाह स्वरूप में इस समय दुनिया के सामने उपस्थित है कि दुनियाभर की सरकारें इसके निदान हेतु चिंतित हैं। निदान का सबसे बड़ा उपाद यही सिद्धांत माना जाता है कि जहर, जहर को मारता है और सरकारें ईट का जवाब पत्थर से देकर आतंकवादियों को समाप्त कर आतंकवाद का समाप्त करने में जुटने लगती हैं। यह उपाय नहीं है। इसका प्रमाण है, आतंकवाद का स्वरूप बदलता और बढ़ता जा रहा है। इसका विशद विश्लेषण तो एक छोटे से निबंध में संभव नहीं, पर समस्या के मूल में झांका जा सकता है। इसके लिए दो बातों को केंद्र में रखा जा सकता है- 1. आतंक मानव की मूल प्रवृत्तियों में शामिल है और 2. आतंक व्यक्ति और राज्य के हित-साधन का उपाय बनता गया है। मनुष्य नैसर्गिक रूप से भयभीत होता, है या कभी-कभी तो भयभीत रहता ही है और दूसरों को भयभीत कर अपना काम निकालना उसकी आदत में शुमार है। इस सारभूत तत्व को ध्यान में रख कर ही आइए आतंकवाद के बदलते और बढ़ते स्वरूप को समझने की कोशिश करें। जीव की अवधारणा में ही निहित है कि जीव, जीवित रहना चाहेगा और जीवन पर ख को भांप लेना उसकी प्रवृत्ति में शामिल है खतरे से बचने या निपटने के लिए प्रकृति ही उसे तैयार कर देती है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश के एक महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र ने यह प्रमाणित किया था कि वनस्पतियों में भी एक प्रकार की चेतना होती है। इस चेतना के कारण ही जीव जंतु अपने को बचाते हुए सृष्टि को जारी रख पाए हैं। जीवन-जगत का सबसे विकसित प्राणी मनुष्य प्रकृति प्रदत्त लाक्षणिकताओं को भी विकसित करता हुआ प्रकृति के सर्वांगीण नियंत्रण से बाहर आ गया है। फिर भी प्राचीन काल में ही मनुष्यों ने देख लिया था कि 'आहार निद्रा भय मैथूनम व सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्' इस तरह भय सभी जीवनों की तरह मनुष्य में भी एक नैसर्गिक मूलभूत अंतःवृत्ति है। पर मनुष्य ने भय को कृत्रिम रूप से विकसित कर उसे एक उपकरण बना दिया है अपनी सुरक्षा का, अपनी सत्ता का और अपनी महत्वकांक्षाओं का इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, दुनिया की सबसे शक्तिशाली संस्था राज्य का विकास। जिसके अस्तित्व का आधार निर्मित करने में उसकी आंतकित कर देने की क्षमता भी निहित है। यहां तक कि मानवीय संबंधों में भी भय के इस्तेमाल का चलन रहा है। यह यूं ही तो नहीं कहा। गया, 'बिनु भय होहिं न प्रीति।' हम कहना यही चाहते हैं कि जब तक आतंकवाद को कुछ व्यक्तियों, कुछ संगठनों और
कुछ समुदायों से जोड़ कर देखा जाता रहेगा, तब तक समस्या अपनी समग्रता में न समझ में आएगी, न उसका समाधान निकलेगा। हमें इस मूल बात को समझना ही होगा कि आतंक समाधान के उपकरण के रूप में समाज में सहज ही स्वीकृत है। क्या पिता अपने बच्चों को सबके सिखाने के लिए आतंकित नहीं करता? क्या लोग अपने काम निकालने के लिए दूसरों को आतंकित नहीं करते? कया तेजी से बढ़ती दादागिरी आतंक के माध्यम से ही अपने को स्थापित नहीं करती? क्या राज्य की सबसे । प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरी बार सत्ता में आए नरेंद्र मोदी को अपनी ही सरकार से तमाम अनसुलझे मुद्दे विरासत में मिले हैं। फिलहाल सरकार को अर्थव्यवस्था में जान फूंकनी होगी, नौकरियों और रोजगार का सृजन करना होगा, किसानों की समस्याओं के समाधान हेतु कोशिशें करनी होंगी। यह अनादेश जाहिर है, मोदी को विकास के तमाम बड़े मुद्दों पर बड़े फैसले लेने में सक्षम बनाएगा। जनादेश में जनता की अपार उम्मीदें छिपी हैं, मोदी सरकार 2.0 इन पर खरा उतरने में सफल होगी।